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ओ३म् खं ब्रह्म: डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता पुरुष: ( परमात्मा) । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म् यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ष॒ः सोऽसाव॒हम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥

I

– यजु० ४० । १७ ( हिरण्मयेन पात्रेण ) स्वर्णिम पात्र से, सुनहरी ताले से ( सत्यस्य ) मुझ सत्यस्वरूप परमेश्वर का ( मुखं ) द्वार ( अपिहितं ) बन्द है । ( यः असौ ) जो वह ( आदित्ये ) आदित्य में ( पुरुषः ) पुरुष दीखता है ( सः असौ ) वह ( अहम् ) मैं हूँ । (ओ३म् खं ब्रह्म ) मेरा नाम ‘ओम्’ है, ‘खं’ है, ‘ब्रह्म’ है ।

हे सांसारिक जनो ! क्या तुम मेरा दर्शन करना चाहते हो । मेरे दर्शन के लिए तुम्हें मेरे मन्दिर में आना होगा । किन्तु, मेरे मन्दिर का द्वार तो सुनहरे ताले से बन्द है । वह सुनहरा ताला इतना आकर्षक है कि जो भी मेरे दर्शन के लिए द्वार पर आता है, वह मेरे दर्शन की बात तो भूल जाता है, सुनहरे ताले पर ही रीझ कर उसी के दर्शन से तृप्तिलाभ करने लग जाता है । तुम सोचोगे कि मैं सम्भवतः किसी तीर्थस्थल पर बने अपने मन्दिर की बात कर रहा हूँ । नहीं, मेरा मन्दिर तो सर्वत्र है । प्रकृति की सब जड़-चेतन वस्तुएँ मेरे मन्दिर हैं। बर्फीले और हरियाली – भरे पर्वतं, नदी, सरोवर, जङ्गल, वृक्ष, वनस्पतियाँ, समुद्र, बादल, सूर्य, चाँद, सितारे सब मेरे मन्दिर हैं, सब में मैं बैठा हुआ हूँ । इन सबके द्वार सुनहरे पात्र से बन्द हैं । इन सब पदार्थों का अपना आकर्षण ही वह स्वर्णिम पात्र है, सुनहरा ताला है । मनुष्य प्राकृतिक छटा को जब अपनी आँखों से देखता है, तब इसकी चकाचौंध से उसकी आँखें चुंधिया जाती हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु के अन्दर बैठा हुआ मैं उसे दिखायी नहीं देता हूँ । पहले उस स्वर्णिम पात्र को, सुनहरे ताले को खोलना होगा। तब मेरी दिव्य मूर्ति तुम सर्वत्र देख सकोगे। क्या तुमने कभी सोचा है कि आदित्य में ज्योति, आकर्षण शक्ति और विपुल चुम्बकीय शक्ति किसने भरी है ? आदित्य को ज्योति देनेवाला, ग्रह-उपग्रहों को अपनी आकर्षण की डोर से बाँधने की शक्ति देनेवाला मैं ही हूँ । अतः जब तुम आदित्य को देखोगे, तब उसमें मैं ही उसके सञ्चालक के रूप में बैठा हुआ दिखायी दूँगा । आदित्य में जो वह उसका सञ्चालक ‘पुरुष’ दीखता है, वह मैं ही हूँ । इसी प्रकार अन्तरिक्ष की विद्युत् में, पृथिवी की अग्नि और प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में तुम्हें ‘पुरुष’ बैठा हुआ दीखेगा। मैं ही वह पुरुष हूँ। मेरा नाम ‘पुरुष’ इस कारण है कि मैं प्रत्येक वस्तु की पुरी में बैठा हूँ, प्रत्येक वस्तु की पुरी में शयन कर रहा हूँ और प्रत्येक वस्तु को स्वयं से परिपूर्ण कर रहा हूँ। मेरा नाम ‘ओम्’ है, क्योंकि मैं सबकी रक्षा करता हूँ, मेरा नाम ‘ ख ३

* है- क्योंकि मैं आकाश के समान सर्वव्यापक हूँ, मेरा नाम ‘ब्रह्म’ है, क्योंकि मैं महिमा में सबसे बड़ा हूँ ।

सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश दे रहा है – हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्यादि में भी हूँ, जो अन्यत्र सूर्यादि में हूँ, वही यहाँ हूँ । सर्वत्र परिपूर्ण, ‘ख’ (आकाश) के समान व्यापक और मुझसे अधिक महान् अन्य कोई नहीं है । सुलक्षण पुत्र के समान प्राणप्रिय मेरा निज नाम ओम्’ है। जो प्रेम और सत्याचरण के साथ मेरी शरण में आता है, उसकी अविद्या को अन्तर्यामी रूप से मैं ही विनष्ट करके, उसके आत्मा को प्रकाशित करके, उसे शुभ-गुण- कर्म-स्वभाववाला करके, उसके ऊपर सत्यस्वरूप का आवरण चढ़ाकर और उसे शुद्ध योगजन्य विज्ञान देकर सब दुःखों से पृथक् करके मोक्षसुख प्राप्त कराता हूँ ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुष: पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा । पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य ।

निरु० २.३, ‘ ( पुरुष: ) पूर्ण: परमात्मा’ – द० ।

२. (ओम् ) योऽवति सकलं जगत् – द० । अव रक्षणादिषु, अवति रक्षतीति

‘ओम्’, ‘अवतेष्टिलोपश्च’ उ० १.१४२ से मन् प्रत्यय और उसकी टि ‘अन्’ का लोप । धातु की उपधा और वकार को ऊठ् = ऊ । ऊ म्=ओम् ।

३. (खम्) आकाशवद् व्यापकम् – द० ।

४. (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् — द० ।

५. दयानन्दभाष्य में प्रकृत मन्त्र के संस्कृतभावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद |

परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव :डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता परमात्मा । छन्दः स्वराड् आर्षी जगती । स पर्वग॑च्छुक्रम॑का॒यम॑त्र॒णम॑स्नावि॒रः शुद्धमपा॑पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः

– यजु० ४०।८

( सः ) वह परमात्मा ( परि – अगात् ) चारों ओर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, ( शुक्रं ) तेजस्वी है, ( अकायम् ) शरीर- रहित है, (अव्रणं ) घावरहित है, ( अस्नाविरं ) नस-नाड़ियों से रहित है, ( शुद्धं ‘ ) पवित्र है, ( अपापविद्धं ) पाप से विद्ध नहीं है । वह ( कवि: ) मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, ( मनीषी ) बुद्धिमान् है, (परिभू: ४) दुष्टों को तिरस्कृत करनेवाला है, ( स्वयम्भूः ) स्वयम्भू है । उसने ( याथातथ्यतः ) यथातथ रूप में, अर्थात् जैसे होने चाहिएँ वैसा ( अर्थान् ) पदार्थों को ( व्यदधात् ) रचा है ( शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ) शाश्वत वर्षों

से सबने परमेश्वर के विषय में विभिन्न नामों से बहुत कुछ श्रवण किया हुआ है । फिर भी आओ, वेद उसके गुण-कर्म- स्वभाव का क्या परिचय दे रहा है, यह जानें । वेद कहता है कि वह चारों ओर गया हुआ है, चारों दिशाओं में विद्यमान है, सर्वव्यापक है । यह एक विचित्र विरोधाभास है कि चारों ओर विद्यमान है, फिर भी आँखों से दिखायी नहीं देता । आँखों से उसका प्रत्यक्ष इस कारण नहीं होता कि वह ‘ अकाय’ है, उसकी भौतिक काया ही नहीं है । आँख तो भौतिक वस्तु को ही देख सकती है । जब भौतिक शरीर ही नहीं है, तो शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग नस – नाड़ी आदि और शरीर के धर्म फोड़ा फुंसी, पीड़ा, ज्वर आदि भी उसके नहीं हैं, वह ‘अव्रण’ और अस्नायु’ है । वह ‘ शुक्र’ है, देदीप्यमान है, तेजोमय है, उसी के तेज से अग्नि, विद्युत्, सूर्य, तारे सब तेजोमय बने हुए हैं, उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं । वह ‘शुद्ध’ है, अविद्यादि दोषों से रहित होने के कारण सदा पवित्र रहता है । वह ‘ अपापविद्ध’ है, तस्करी, डकैती आदि पापों से विद्ध नहीं होता। वह ‘कवि’ है, मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है । वेदरूप काव्य का काव्यकार होने के कारण भी वह ‘कवि’ है । वह ‘ मनीषी’ है, मनस्वी है, पारदर्शी विचारों का अधीश्वर है । वह ‘ परिभू’ है, सबका परिभव या तिरस्कार करके सर्वोपरि विराजमान है । वह बड़े से बड़े दस्युओं को तिरस्कृत करके धूल में मिला देता है । वह ‘स्वयम्भू’ है, स्वयं सर्वशक्तिमान् बना हुआ है । अपनी शक्तिशालिता के लिए वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं है । वह सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक यथोचित रूप में पदार्थों की रचना करता चला आया है। उसने सूर्य आदि पदार्थों को जैसा चाहिए था, वैसा ही बनाया है, उनमें कोई त्रुटि नहीं है ।

इस कण्डिका में परमेश्वर की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की स्तुति है । जिन विशेषणों या वाक्यों में उसके अन्दर विद्यमान गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन किया है, उनमें सगुण स्तुति है और ‘अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्, अपापविद्धम्’ विशेषणों द्वारा निर्गुण स्तुति है । आओ, हम भूयोभूयः प्रभु की स्तुति करें और उसके जिन गुण-कर्म-स्वभावों को ग्रहण कर सकते हैं, उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रः = यः शोचति ज्वलति स शुक्रः । शोचति ज्वलतिकर्मा, निघं०

१.१६

२. (शुद्धम् ) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् – द० ।

३. कविः – मेधावी, निघं० ३.१५ । मेधावी कविः क्रान्तदर्शनो भवति

कवतेर्वा, निरु० १२.७।

४. (परिभूः ) यो दुष्टान् पापिन: परिभवति तिरस्करोति सः – द० ।

आत्मघाती लोग कहाँ जाते हैं? डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवतां आत्मा । छन्दः अनुष्टुप् । असुर्या, नाम ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः । ताँस्ते प्रेत्यापि॑िगच्छन्ति ये के चा॑त्म॒हना॒ जना॑ः ॥

I

– यजु० ४० । ३

( असुर्या : १ ) असुरों से प्राप्तव्य ( नाम ) निश्चय ही ( ते लोकाः ) वे लोक हैं, जो ( अन्धेन तमसा ) घोर अन्धकार से ( आवृताः ) आच्छादित हैं । ( तान् ) उन लोकों को (ते ) वे लोग (प्रेत्य ) मर कर ( अपि गच्छन्ति ) प्राप्त होते हैं, ( ये के च ) जो कोई भी ( आत्महन: २ जनाः ) आत्मघाती जन होते हैं ।

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सबसे पूर्व ‘आत्महनः का अर्थ समझ लेना चाहिए । आत्मन्’ शब्द परमेश्वर और जीवात्मा दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म-हन्ता दोनों ही

आत्महनः’ कहलाते हैं । हत्या तो परमेश्वर और जीवात्मा किसी की भी नहीं होती है, ये दोनों ही अजर-अमर हैं । परमेश्वर – हन्ता वह है, जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और यह प्रचार करता है कि परमेश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो मनुष्यों को उनके अच्छे-बुरे कर्मों के फल प्रदान करे; अतः जैसा चाहो आचरण रखो, मारो – काटो, लूटो, दूसरों का धन छीनो, चोरी करो, डाके डालो, ईश्वर है ही नहीं तो बुरा फल क्या देगा । इसी प्रकार जो जीवात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, वे जीवात्म-हन्ता हैं । वे कहते हैं जब तक जियो, सुख से जियो, कर्ज ले-लेकर घी पियो, मेवे खाओ, शरीर के मरने के बाद जीवात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो कर्मफल प्राप्त करे। ये परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म- हन्ता दोनों ही समाज में अनाचार, कदाचार, व्यभिचार फैला कर समाज को दूषित करते हैं, परिणामतः उन लोकों या योनियों में जाते हैं, जिनमें असुर लोग पहुँचते हैं और जो घोर अन्धकार से घिरी होती हैं । ‘सु-र’ का अर्थ होता है शुभ कर्म करनेवाले। उससे विपरीत ‘असुर’ होते हैं, अर्थात् अशुभ कर्म करनेवाले । वे पशु-पक्षी – कीट-पतङ्ग – सरीसृप आदि की योनियों में जन्म लेते हैं । वे योनियाँ अन्धकार से आवृत होती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि उन योनियों मन, बुद्धि आदि कार्य नहीं करते। उन योनियों में जिनका जन्म होता है, वे खाने-पीने आदि की साधारण क्रियाएँ ही करते हैं, जैसे मनुष्य सोच-विचार कर, बुद्धि का प्रयोग करके नवीन नवीन ज्ञान प्राप्त करता है, नये-नये आविष्कार करता है, वैसा वे कुछ नहीं कर सकते ।

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अतः हमें चाहिए कि हम ‘आत्मघाती’ न बनें, परमेश्वर और जीवात्मा दोनों की सत्ता स्वीकार करते हुए शुभ कर्म ही करें, जिससे हमें उन्नति करने के लिए पुनः मनुष्य- योनि प्राप्त हो और उसमें निष्काम कर्म करते हुए हम दुःखों से मुक्ति भी प्राप्त कर सकें ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सुराः शुभकर्मरता:, तद्विपरीता असुराः । असुराणाम् इमे असुर्याः असुरैः

प्राप्तव्या: ।

२. आत्मानं परमेश्वरं जीवात्मानं वा ध्वन्तीति आत्महनः ।

ईश- प्रार्थना:डॉ रामनाथ वेदालङ्कार

ऋषिः नारायणः । देवताः सविता । छन्दः गायत्री ।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव । य॑ह्म॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व ॥

– यजु० ३० । ३ हे ( सवितः ) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र- ऐश्वर्ययुक्त शुभगुणप्रेरक, (देव) तेजस्वी, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे ( विश्वानि ) सम्पूर्ण ( दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिए। (यत्) जो ( भद्रम् ) कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ है, ( तत् ) वह सब, हमको ( आ सुव) प्रदान कीजिए ।

हे जगदीश्वर ! आप सूर्य, चन्द्र, तारावलि, पर्जन्य, पर्वत, निर्झर, सरिता, सागर आदि से परिपूर्ण सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता हो, समग्र ऐश्वर्यों से युक्त हो और हम मानवों के आत्मा में शुभ गुणों की प्रेरणा करनेवाले हो । आप ‘देव’ हो, तेजस्वी हो, तेज प्रदान करनेवाले हो, शुद्धस्वरूप हो और सब सुखों के दाता हो। जो दुर्गुण हमारे अन्दर आ गये हैं, जिन दुर्व्यसनों में हम फँस गये हैं, जिन आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक दुःखों के हम घर हो रहे हैं, उन सबको आप हमारे अन्दर से दूर कर दीजिए । जो भद्र है, कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव है और जो कल्याणकारक पदार्थ हैं, वह हमें प्रदान कीजिए ।

वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल

वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

            इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।

            ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।

            ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।

            ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे  उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।

            ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।

            ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।

            ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।

            ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।

            ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।

अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।

वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,

पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१

आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः सोमाहुतिः । देवता अग्निः । छन्दः स्वराडू आर्षी त्रिष्टप्।

पुर्नस्त्वादित्या रुद्रा वसवः सन्धि पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥

-यजु० १२।४४

हे ( वसुनीथ) स्वास्थ्य आदि ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले यज्ञाग्नि! ( पुनः त्वा ) पुनः तुझे (यज्ञैः ) यज्ञों से ( आदित्या:१) त्रिवेदी विद्वान्, (रुद्राः२) द्विवेदी विद्वान्, ( वसवः३) एकवेदी विद्वान् ( समिन्धताम् ) प्रज्वलित करें, ( पुनः ) पुनः ( ब्रह्माण:४) चतुर्वेदी विद्वान् [प्रदीप्त करें](घृतेन ) घृत से ( त्वं ) तू ( तन्वं) शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। (सत्याः सन्तु) सत्य हों (यजमानस्य कामाः ) यजमान की कामनाएँ।

यजमान ने किन्हीं पवित्र महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर सकाम यज्ञ आरम्भ किया है। यज्ञवेदि को हल्दी, रोली आदि से सजा कर यज्ञकुण्ड में घृतदीपक से अग्नि प्रज्वलित की है। यह अग्नि प्रकाश, ज्ञानज्योति, प्रगति, स्फूर्ति, अग्रगामिता, विघ्नदाह, राक्षसी वृत्तियों के भस्मीकरण, ऊध्र्वारोहण आदि का प्रतीक है। घृताहुति से यह बल पाता है और इसकी ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद और रोगहर पदार्थों के प्रज्वलन से यह पर्यावरण को शुद्ध करता है। मानस में मनुष्य से देव बनने की तरङ्गे उठाता है, सङ्कल्प को दृढ़ करता है। और ध्येय में सफल होने की प्रेरणा करता है। यह अग्नि ‘वसुनीथ’ कहलाता है, क्योंकि स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, प्राणशक्ति मनोबल आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है और उनका उन्नयन करता है। जीवन में एक बार ही इसे प्रज्वलित करना पर्याप्त नहीं है, अतः मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि याज्ञिकजन जीवन में पुनः पुन: इसे प्रज्वलित किया करें। इन याज्ञिकों को यहाँ चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है, वसु, रुद्र, आदित्य और ब्रह्मा । वसु एकवेदी, रुद्र द्विवेदी, आदित्य त्रिवेदी और ब्रह्मा चतुर्वेदी याज्ञिक हैं। यज्ञ घृत और चतुर्विध हवन-सामग्री से तो लाभ पहुँचाता ही है, इसके अतिरिक्त यजमान और पुरोहितों को जितना अधिक वेदमन्त्रों का अर्थबोध होगा, उतना ही अधिक आन्तरिक लाभ भी ये प्राप्त कर-करा सकेंगे। एक, दो, तीन या चारों वेदों का मन्त्रार्थ समझते हुए जो यज्ञ करता है, वह यज्ञ का केवल भौतिक लाभ ही नहीं प्राप्त करता, अपितु सद्गुण, विवेक, कर्त्तव्यबोध, ज्ञानवृद्धि, ईश्वरभक्ति, अमृतवर्षा, अन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय कोषों की बलवत्ता आदि का लाभ भी प्राप्त करता है। वह मन्त्रार्थ को अपने और समाज के जीवन में क्रियान्वित करने का व्रत भी व्रतपति अग्नि से और व्रतपति परमेश्वर से ग्रहण करता है। हे यज्ञाग्नि! तू घृतादि की आहुतियों से अपनी और यजमान की, दोनों की तनूवृद्धि कर, दोनों का शरीरवर्धन कर! हे यजमान ! यज्ञ में उपस्थित समस्त यज्ञप्रेमियों का, विद्वानों का, पुरोहितों का, वेद का और परमेश्वर का तुझे यह आशीर्वाद है कि यजमान की कामनाएँ सत्य हों, पूर्ण हों, फलित हों-”सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।”

पादटिप्पणियाँ

१-४.( वसव:) प्रथमे विद्वांसः, (रुद्राः) मध्यस्था:, (आदित्या:)पूर्णविद्याबलयुक्ताः, (ब्रह्माण:) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः द० |

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः ।

इडामग्ने पुरुससनिं गोः शश्वत्त्तमहर्वमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुतिर्भूत्वस्मे॥

-यजु० १२।५१

( अग्ने ) हे तेजस्वी परमेश्वर ! ( हवमानाय ) मुझ प्रार्थी के लिए ( इडाम् ) भूमि, अन्न और गाय तथा ( पुरुदंसं ) अनेक कर्मों को सिद्ध करनेवाली ( गो:४ सनिं ) वाणी की देन ( शश्वत्तमं ) निरन्तर ( साध ) प्रदान कीजिए। (नः सूनुः ) हमारा पुत्र ( तनयः५) वंश आदि का विस्तार करनेवाला और ( विजावा ) विविध ऐश्वर्यों का जनक ( स्यात् ) हो ( सा ) ऐसी ( ते सुमतिः ) आपकी सुमति ( अस्मे ) हमारे लिए ( भूतु ) होवे।

हे अग्नि! हे अग्रनायक तेजस्वी परमेश्वर ! हम आपसे कुछ याचना कर रहे हैं, करबद्ध होकर प्रार्थना कर रहे हैं, वह हमारी प्रार्थना कृपा करके आप पूर्ण कीजिए। क्या कहते हो? अपने आचार्य के वचन सुनो-”यही प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त है कि जैसी प्रार्थना करे वैसा ही कर्म करे।७।। अतः जो कुछ माँगते हो उसे पाने का स्वयं पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ तो हम करेंगे भगवन्, किन्तु पहले आपका आशीर्वाद तो ले लें । प्रार्थना द्वारा आपसे दृढ़ सङ्कल्प, कर्म के प्रति तत्परता, उत्साह, प्रेरणा, सफलता का आशीर्वाद आदि प्राप्त होते हैं। प्रार्थना करके हम उन्हें ही प्राप्त करना चाहते हैं। फिर कृतकार्य होने के लिए पुरुषार्थ में जुट जायेंगे और आपके आशीर्वाद से प्रार्थित वस्तुओं को प्राप्त करके ही रहेंगे। पहली वस्तु, जो हम माँगते हैं, वह है ‘इडा’। इडा का अर्थ है भूमि, अन्न और  गाय । हमें निवास के लिए, खेती करने के लिए, बाग-बगीचे लगाने के लिए, कल-कारखाने खोलने के लिए और शिक्षणालय, औषधालय आदि चलाने के लिए भूमि दीजिए। अन्न, अर्थात् सकल शुद्ध आरोग्यकारी भोज्य पदार्थ दीजिए और दूध-दही-माखन आदि की पूर्ति के लिए दुधारू गाय दीजिए। दूसरी हमारी प्रार्थित वस्तु है ‘गोः सनिः’। गो शब्द निघण्टु में वाणीवाचक शब्दों में भी पठित है। वाणी की देन भी हमें चाहिए। वाणी पुरुदंसाः’ है, अनेक कार्यों को सिद्ध करनेवाली है। वेदादि शास्त्रों की वाणी, गुरुजनों की वाणी, अनुभवी संन्यासियों की वाणी मूर्ख को भी विद्वान्, अधार्मिक को भी धर्मात्मा, आतङ्कवादी को भी मित्र बना देती है। वाणी की यह देन नैरन्तर्य के साथ हमें प्राप्त होती रहे। हम कभी वाणी से और वाणी के लाभों से वञ्चित न हों। तीसरी वस्तु हम यह माँगते हैं कि हमारा पुत्र ‘तनय’ हो, वंश के यश का विस्तार करनेवाला हो। वह ‘विजावा’ अर्थात् विविध ऐश्वर्यो का जनक भी हो। धन-सम्पदा का ऐश्वर्य, वीरता का ऐश्वर्य, विद्या का ऐश्वर्य, प्रताप का ऐश्वर्य, अहिंसा का ऐश्वर्य, सत्य का ऐश्वर्य, ब्रह्मचर्य का ऐश्वर्य आदि ऐश्वर्यों की उसके पास झड़ी लगी हो।

हे अग्निदेव! हे तेजस्वी परमेश! ऐसी आपकी सुमति हमारे ऊपर रहे कि हम समस्त वांछित वस्तुओं को पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहें और संसार में सर्वाधिक समुन्नत होकर जीवनयापन करें।

पादटिप्पणियाँ

१. हृञ् स्पर्धायां शब्दे चे, सम्प्रसारण, पूर्वरूप होने पर हृ=हु, शानच् ।

२. इडा=पृथिवी, अन्न, गाय, निघं० १.१, २.७, २.११।।

३. पुरूणि बहूनि दंसांसि (कर्माणि) भवन्ति यस्मात्–द० ।

४. इडा=वाकु, निघं० ३.११ ।।

५. तनोति विस्तारयति वंशं यशश्च यः स तनयः।

६. विजावा विविधैश्वर्यजनकः-द०।।

७. अयमेव प्रार्थनाया मुख्यः सिद्धान्तः, यादृशीं प्रार्थनां कुर्यात् तादृशमेवकर्माचरदिति । य०भा० ३.३५ का भावार्थ।

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

-यजु० १३ । ४६

( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का।

देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ प्रभात खिल रहा है। सूर्य-रश्मियों का चित्र-विचित्र सैन्य उदित हुआ है। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरु, वल्लरी, सदन, अट्टालिकाएँ, स्तूप राजप्रासाद सब दीप्ति से जगमगाने लगे हैं। अन्धेरा गिरि-कन्दराओं में जाकर छिप गया है। शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का स्पर्श शरीर को सुखद लग रहा है। नदियों और सरोवरों के जल पर झिलमिलाती हुई दिवाकर की किरणें दर्पण में झाँकती हुई-सी प्रतीत हो रही हैं। अग्नि की ज्वालाएँ अपनी ज्योति के स्रोत सूर्य को देख कर शरमाती हुई-सी लग रही हैं। यही रश्मिपुञ्ज सूर्य, वायु, जल और अग्नि का तथा शारीरिक प्राण, उदान और जाठराग्नि का भी चक्षु है, प्रकाशक है, प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने अपनी किरणों  से द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक को आपूरित कर लिया है। सचमुच यह सूर्य जङ्गम और स्थावर का आत्मा है, प्राण है, जीवन है। इसी सूर्य से मानव आदि प्राणी प्राण प्राप्त करते हैं, इसी सूर्य से वृक्ष-वनस्पति जीवन धारण करती हैं। इसी सूर्य से जङ्गम-स्थावर स्थिति पाता है। यही सूर्य हमारी भूमि का आधार है, यही मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहों का आधार है, यही सूर्य इन ग्रहों के उपग्रह भूत चन्द्रों का आधार है। यह तो बाह्य जगत् की लीला है।

अन्तर्जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। परमात्मसूर्य की प्रकाशमय दिव्य किरणों का जाल आत्मलोक पर छा रहा है। आत्मलोक पर प्रभात उदित हो रहा है। तामसिकता का अन्धकार विनष्ट हो गया है। इस अन्त:प्रकाश ने प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय लोक को भी प्रकाशित कर दिया है। आत्मा, मन और शरीर को इस परमात्मसूर्य ने पूर्णतः आपूरित कर लिया है। यह परमात्मसूर्य जङ्गम मनोवृत्तियों का और ज्ञानेन्द्रियों का तथा कर्मेन्द्रियों एवं अन्नमय शरीर का प्राण है। हे साधको! इस परमात्मसूर्य से दिव्य प्राण, जीवन और जागृति प्राप्त करो, अन्त:करण को प्रकाशित करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. मित्रस्य प्राणस्य, वरुणस्य उदानस्य-२० ।।

२. आप्रा:=ओ अप्राः, प्रा पूरणे, लङ्।

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता प्रजापतिः । छन्दः विराड् ब्राह्मी जगती ।

त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाऽऽक्रमोऽस्याकूमार्य त्वा संक्रमोऽसि संक्रमार्य त्वोत्क्रमोऽस्युत्क्रमा त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनो र्जार्ज जिन्व।।

-यजु० १५ । ९

हे मनुष्य ! तू (त्रिवृद् असि ) ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों तत्वों के साथ वर्तमान है, अतः ( त्रिवृते त्वा ) इन तीनों की वृत्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( प्रवृत् असि) प्रवृत्तिमार्ग में जाने योग्य है, अतः ( प्रवृते त्वा ) प्रवृत्तिमार्ग पर चलने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( विवृद् असि ) विविध उपायों से उपकार करनेवाला है, अत: (विवृते त्वा ) विविध उपायों से उपकार के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (सवृद्असि) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बना सकनेवाला है, अत: ( सवृते त्वा ) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (आक्रमःअसि ) शत्रुओं पर आक्रमण कर सकनेवाला है, अतः ( आक्रमाय त्वा ) शत्रुओं पर आक्रमण करने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( संक्रमः असि ) संक्रमे करनेवाला है, अतः ( संक्रमाय त्वा ) संक्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (उत्क्रमः असि ) उत्क्रमण करनेवाला है, अतः ( उत्क्रमाय त्वा ) उत्क्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( उत्क्रान्तिः असि ) उत्क्रान्ति करनेवाला है, अत: (उत्क्रान्त्यै त्वा ) उत्क्रान्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( अधिपतिना ऊर्जा ) अधिरक्षक बलवान्  द्वारा (ऊर्जी ) बल को (जिन्व) प्राप्त कर।

हे मानव ! क्या तू जानता है कि तू संसार का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। तुझे अपनी सर्वोत्कृष्टता के अनुरूप ही कर्म करने हैं। तू त्रिवृत्’ है, ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों की योग्यता रखता है। अतः तुझे उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट कर्म और उत्कृष्ट उपासना तीनों के सम्यक् सम्पादन के लिए नियुक्त करता हूँ। अकेला ज्ञान या अकेला कर्म कुछ अर्थ नहीं रखता, ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही श्रेष्ठ फल उत्पन्न करता है। उपासना भी ज्ञानपूर्वक ही होती है, अकेली उपासना छलावा है। अत: तू तीनों का जीवन में यथोचित मेल रख कर ही कार्य कर। दूसरी बात जिसकी ओर मैं तेरा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ, वह यह है कि संसार में जीवनयापन के दो मार्ग हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग और दूसरा निवृत्तिमार्ग। निवृत्तिमार्ग के अनुयायी लोग यह चाहते हैं कि हम सांसारिक कार्यों से उपरत होकर अहं ब्रह्मास्मि’ का ही जप करते रहें। परन्तु यह आत्मप्रवंचना है। सांसारिकता को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। प्रवृत्तिमार्ग कहता है कि जिस स्थिति में हमारे जो कर्तव्य हैं, उनका हमें पालन करना चाहिए। कुमारावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास सबके अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य है। उन्हें करते हुए कुछ समय हम धारणा-ध्यान-समाधि के लिए भी निकालें । यह प्रवृत्तिमार्ग ही मैं तेरे लिए निर्धारित करता हूँ। इस मार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है, सामञ्जस्य है।

यह भी ध्यान रखें कि तेरे अन्दर विविध उपायों से उपकार करने का सामर्थ्य है। अत: तू विविध उपायों से जीवन में परोपकार करता रह। कभी तू निर्धन को धन देकर उसका उपकार कर, कभी तू मूक को वाणी देकर, बधिर को श्रवण देकर, पंगु को टाँग देकर, रोगी को स्वास्थ्य देकर उनका उपकार करे। कभी तू अशिक्षित को शिक्षा देकर, मूर्ख को विद्वान् बना कर उसका उपकार कर। कभी तू पीड़ित की।  पीड़ा हर कर, विपद्ग्रस्त की विपत्ति हर कर उसका उपकार कर। हे मानव ! याद रख, अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने की शक्ति भी तेरे अन्दर है, अत: अन्यों को साथ लेकर सङ्गठन बना, संस्था खड़ी कर, संस्थान खोल और उन सङ्गठनों, संस्थाओं तथा संस्थानों के द्वारा ऐसा कार्य कर दिखा जिस पर संसार तुझे साधुवाद दे। इस भूतल पर तेरे अनेक शत्रु भी हो सकते हैं। तू उनकी दाल मत गलने दे। उन पर आक्रमण कर और उन्हें पराजित करके विजयदुन्दुभि बजा । तेरे अन्दर संक्रमण की शक्ति भी है। संक्रमण का तात्पर्य है, अन्यों के साथ सम्पर्क करके उनके अन्दर अपने गुण समाविष्ट करना । यदि ऐसा तू करेगा, तो नास्तिकों को आस्तिक, हिंसकों को अहिंसक, निर्बलों को बली, लुटेरों को साधु और शत्रुओं को मित्र बना सकेगा। तेरे अन्दर उत्क्रमण का सामर्थ्य है, अत: उत्क्रमण भी कर। उत्क्रमण का अर्थ है, ऊपर उछलना, जिस स्तर पर खड़ा है, उससे ऊपर के स्तर पर पहुँचना और इस प्रकार उपरले उपरले स्तर पर पहुँचते-पहुँचते सर्वोन्नत शिखर पर पहुँच जाना। तू उत्क्रान्ति भी कर सकता है, अतः उत्क्रान्ति भी कर। उत्क्रान्ति से अभिप्रेत है जनसमूह को लेकर उच्च दिशा में क्रान्ति कर दिखाना। जैसे किसी पराधीन देश के वासियों द्वारा मिलकर पराधीनता की जंजीर तोड़कर स्वराज्य पा लेना।

हे मानव! किसी बलवान् और प्राणवान् को अधिपति बना कर, अपना संरक्षक बना कर बल तथा प्राणशक्ति प्राप्त कर और संसार को बदल दे।

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार