वेदों में राष्ट्र की संकल्पना एवं राष्ट्रीय एकता का स्वरुप: संदीप कुमार उपाध्याय

  • राष्ट्र का स्वरुप एवं प्रकृति

 

 

विश्व के प्राचीनतम साहित्यों में राष्ट्र या देश के प्रति सुंदर उद्गारों की अभिव्यक्ति की झलक यत्र-तत्र स्पष्ट दिखाई पड़ती है | राष्ट्र शब्द एक सुनिर्दिष्ट अर्थ और भावना का प्रतीक है | जिस प्रकार यजुर्वेद ने राष्ट्र के कल्याण की कामना कितने सुंदर शब्दों में की है –

आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्‌[1]

अर्थात् हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय, वीर, धनुषधारी, लक्ष्यवेधी और महारथी हों | अथर्ववेद में भी राष्ट्र के धन-धान्य दुग्ध आदि से संवर्धन प्राप्ति की कामना की गई है-

अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम् [2]

राष्ट्र से संबंधित शब्दों का प्रयोग वैदिक साहित्य में अत्यधिक किया गया है | जैसे साम्राज्य, स्वराज्य, राज्य, महाराज्य आदि | इन सब में राष्ट्र शब्द ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं | राष्ट्र शब्द से आशय उस भूखंड विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं | एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है | कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो | उनकी अपनी जनसंख्या, भू-भाग, प्रभुसत्ता, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, स्वाधीनता और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता आदि समस्त तत्त्व हों, जिसकी समस्त प्रजा अपने राष्ट्र के प्रति आस्थावान हो | वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो | प्रांतीयता और धर्म संकुचित होते हुए भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक नहीं होते हैं क्योंकि राष्ट्रीयएकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में प्रेम, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है| तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है | तब राष्ट्र ही सर्वोपरि होता हैं | इन गुणों के विकास से ही राष्ट्र स्वस्थ तथा शक्तिशाली होता है |

 

  • राष्ट्र की विषय वस्तु एवं क्षेत्र

 

राष्ट्र के संगठन हेतु किन्ही निश्चित तत्त्वों की आवश्यकता नहीं| समान जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति, भूभाग की अपेक्षा उनमें साथ साथ रहने की इच्छा तथा एकता की भावना होना अति आवश्यक है | अतः राष्ट एक कल्पना है जिस कल्पना का आधार होता है -मानवीय एकता | राष्ट्र वह भावना हैं जो एकत्व की ओर प्रेरित करती है | राष्ट्रीय के लिए जनसंख्या, भूभाग,, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक नहीं, इसके लिए आवश्यक मिट्टी से प्यार|

 

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।  वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।[3]

  • राष्ट्र निर्माण के तत्व

 

तत्वों की अनिश्चितता होते हुए भी राष्ट्र के निर्माण हेतु अधोलिखित तत्वों  की आवश्यकता पड़ती है

  • जनसंख्या

 

             जनसंख्या राष्ट्र का मुख्य तत्त्व है | जब तक राष्ट्र में प्रयाप्त जनसंख्या नहीं होगी तब तक राष्ट्र को संगठित नहीं किया जा सकता क्योंकि राष्ट्र का प्राणतत्त्व है – राष्ट्रीय भावना, जो कि लोगों के परस्पर मिलकर एक साथ रहने से तथा विचारों के आदान-प्रदान, प्रेम, सहयोग की भावना, सभ्यता और संस्कृति आदि के द्वारा पल्लवित तथा पुष्पित होती है| यह तभी संभव है जब जनसंख्या का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता, शांतिमय जीवन तथा जियो और जीने दो की भावना से ओत-प्रोत हो |

 

  • भौगोलिकता

 

           राष्ट्र की आध्यात्मिकता की भावना को दृडता प्रदान करने में भौगोलिकता का अपना विशेष महत्व है क्योंकि भौगोलिकता हि मनुष्य को एकत्व की शिक्षा प्रदान करती है | एक भूभाग पर बसा हुआ जनसमूह स्वाभाविक रुप से राष्ट्रीय एकता की दृढ- बंधन में बंध जाता है क्योंकि उसकी समान जाती, भाषा, धर्म , परंपरा, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य आचार-विचार तथा भाव आदि सामान होने के कारण उन से प्रेरित होकर ही वह दूसरों के दुख में अपना दुख तथा दूसरों के सुख में अपना सुख समझता है |

 

  • भाषा

 

             प्रत्येक राष्ट्र के संगठन हेतु भाषा का होना अति आवश्यक है क्योंकि भाषा रहित राष्ट्र गूंगे व्यक्ति के समान होता है जिसकी अपनी कोई भाषा, शैली, भाव तथा विचार नहीं होते | अत: राष्ट्र को सुसंगठित करने हेतु राष्ट्र की एक राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए जो संपूर्ण राष्ट्र में बोली जाए तथा जिसके माध्यम से ही राष्ट्रीय स्तर पर समस्त कार्य की जाएं तथा राष्ट्र अपनी शासन व्यवस्था को सुचारु रुप से संचालित कर सके| भाषा ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने भावों, विचारों तथा अनुभवों को व्यक्त कर सकते हैं तथा दूसरों के भाव विचारों तथा अनुभवों को समझ सकते हैं | भाषा के माध्यम से ही मानव जाति ने न केवल समाज के रूप में अपितु राष्ट्र रूप में गुम्फित कर लिया है | इस प्रकार राष्ट्र, संगठन तथा राष्ट्रीयता को दृढ़ता प्रदान करने में भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |

 

  • धर्म

 

             मनुष्य स्वेच्छा से जो कुछ धारण करता है वही धर्म है और धर्म का राष्ट्र के संगठन में अपना महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि धर्म ही मनुष्य को मानवता से जोड़ता है और मानवता मनुष्यता से | जब मनुष्य के मन में ही सुखी जीवो को अधिक सुखी और दुखी जीवो को सुखी बनाने का भाव जागृत होता है, तब उसके द्वारा किये गए प्रत्येक कल्याणकारी कार्य उसका धर्म होते हैं | यही धर्म उसे राष्ट्र की भावनात्मक शक्ति राष्ट्रीयता से जोड़ता है जो राष्ट्र को सुसंगठित करता है |

 

  • शासन व्यवस्था

 

                   सुसंगठित राष्ट्र के संचालन हेतु शासन व्यवस्था की आवश्यकता होती है जिसकी अभाव में राष्ट्र में अराजकता, वैमनस्य आदि व्याप्त हो जाते हैं जिससे सब अपनी मनमानी करने लगते हैं | जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है | अतः समस्त मानव जाति तथा राष्ट्र उन्नति के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु शासन व्यवस्था की महती आवश्यकता पड़ती है, जिससे राष्ट्र का गौरव तथा उसकी स्वतंत्रता सदैव बनी रहती है |

 

  • सभ्यता और संस्कृति

 

                 सभ्यता और संस्कृति राष्ट्र संगठन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है| किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी सभ्यता तथा संस्कृति ही होती है जिसके द्वारा ही वह अन्य राष्ट्रों के समक्ष अपनी पहचान बनाए रखता है| सभ्यता और संस्कृति ही मनुष्य को आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों से सम्बद्ध करती है और राष्ट्रीयता की भावना को साकार करती है | इस प्रकार संस्कृति ही धार्मिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक तथा विश्व बंधुत्व की भावना को प्रवाहित करने वाली नदी है जिस का उद्गम स्थान राष्ट्र है |

 

  • साहित्य

 

                           साहित्य भी राष्ट्र संगठन को अत्यधिक प्रभावित करता है | साहित्य के द्वारा ही व्यक्ति स्वयं को समाज में समायोजित करने योग्य बनाता है | समाज में समायोजित व्यक्ति ही अपना, अपने परिवार का, नगर का, देश तथा समाज का कल्याण कर सकता है | इस प्रकार साहित्य व्यक्ति पर समाज पर, राष्ट्र पर अपना विशेष प्रभाव डालता है जिससे राष्ट्र की आंतरिक भावनात्मक शक्ति को तथा राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है |

 

  • राष्ट्रीय एकता एवम अखंडता के आधार तत्व

 

 

वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय संस्कृति का एक आदर्श है | इस आदर्श की संकल्पना वैदिक है | हमारे धर्म ग्रंथों में इसको उल्लिखित किया गया है | हमारे वैदिक ऋषियों ने समग्र मानवता को एक माना है, सब के कल्याण की कामना की है यथा-

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्यन् तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत् |[4]

           ऋग्वेद के निम्न मंत्र में भी मानव मात्र की मता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।

युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यत्।।[5]

वेदो में वर्णित समता, सहृदयता और स्नेह का यह आदर्श अधिकांशत: मानव जाति के संदर्भ में प्रतिष्ठित हुआ है | यही भावना आगे चलकर उपनिषद और गीता में विस्तृत हुई है| परम एकत्व के आदर्श के अंतर्गत समस्त प्राणियों और वनस्पतियों तक के प्रति अधिक समभाव प्रकट किया गया है| राष्ट्रीय एकता एक ऐसी भावना है जिसके अनुसार राष्ट्र के समस्त निवासी एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए राष्ट्र की उन्नति हेतु परस्पर मिलकर कार्य करते हैं | वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो राष्ट्र का एकीकरण करते हुए उसके निवासियों में पारस्परिक बंधुत्व और राष्ट्र के प्रति निजत्व का भाव जागृत करते हुए राष्ट्र को सुसंगठित और सशक्त बनाती है | इस प्रकार राष्ट्रीय एकता भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी उन्हें एकता के सूत्र में बांधकर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है |

राष्ट्रीय एकता राष्ट्र रूपी शरीर में आत्मा के समान है जिस प्रकार आत्मा विहीन शरीर प्रयोजनहीहो जाता है उसी प्रकार राष्ट्र भी राष्ट्रीय एकता के अभाव में टूट जाता है | हमारा देश भारत एक ऐसा ही देश है जहां भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता आदि कि भिन्नता पायी जाती है| लेकिन फिर भी यह एक गौरवशाली राष्ट्र है और राष्ट्रीय एकता इसकी मौलिक विशेषता है|

भारत आज जातिवाद आतंकवाद एवं सांप्रदायिकता की आग में इस तरह धनुष रहा है कि उसके लिए रास्ते एकता के जल की बूंदे खोज पाना अत्यधिक कठिन प्रति हो रहा है आज भारत में किसी भी समय सांप्रदायिक दंगे हो जाना सामान्य बात हो गई है क्योंकि राष्ट्र धर्म से बढ़कर है इस भावना का नागरिकों में लोक सा होता जा रहा है इसी कारण वह स्वयं को हिंदू मुसलमान सिख इसाई आधी पहले समझता है और भारतीय बाद में व्यक्ति प्राचीन काल से ही व्यक्तिगत धर्म जाति और संस्कारों से बढ़कर अपने राष्ट्र को महत्व दिया जाता रहा है परंतु आज भारत में इसके विपरीत बडी हो रहा है इस प्रकार दुर्भाग्यपूर्ण दंगो के निवारण का एक मात्र साधन राष्ट्रीय एकता की रक्षा ही है जिसकी अभाव में भारत राष्ट्र ने अपने अतीत में बहुत ही भैया वह स्त्रियों का सामना किया है इतिहास साक्षी है कि भारतीयों की आपसी फूट के कारण ही बाहर से आए आक्रमण कार्यो और अंग्रेजों ने वर्षों तक भारतवासियों को परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ रखा परतंत्रता कि इन बेड़ियों को काटने के लिए भारत के समस्त नागरिकों को जाति धर्म प्रांतीय ता से ऊपर उठकर एकजुट होना पड़ा तब कहीं कड़े संघर्ष के पश्चात भारत में स्वाधीनता की सूर्य का उदय हुआ |

  • वेदों में राष्ट्रीय एकता

 

प्रत्येक राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि वहां की नागरिकों में राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार होना चाहिए | मातृभूमि को अपनी जन्मदात्री मां के सदृश मानने वाले राष्ट्रभक्त ही राष्ट्र के वास्तविक भक्त होते हैं | उनमें आपस में बंधुत्व की भावना सदा जागृत रहनी चाहिए | जो राष्ट्र का संचालन करते हैं उनका विद्वान होना आवश्यक है | सारे राष्ट्र की निष्ठाएवं विश्वास unameउनमें होनी चाहिए और उन्हें भी पितासदृश संरक्षण देकर सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए |नागरिकों में इस प्रकार की उदात्त भावना उस दिशा में ही संभव है जबकि प्रत्येक व्यक्ति में परस्पर समभाव हो और कोई किसी को ज्येष्ठ या कनिष्ठ ना समझे जैसे कि ऋग्वेद में कहा गया है-

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदो ऽमध्यमासो महसा वि वाव्र्धुः |  सुजातासो जनुषा पर्श्निमातरो दिवो मर्या आ नो अछा जिगातन ||[6]

                       अर्थात राष्ट्र भक्तों में किसी प्रकार की ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता की भावना नहीं होने चाहिए | सभी को अपने सdद्प्रयत्नो से राष्ट्र की उन्नति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए |

सामूहिक हित की भावना से ही सबकी उन्नति संभव है और सभी की उन्नति से ही राष्ट्र की दृढ़ता बढ़ती है | उसकी एकता और अखंडता और मजबूत होती है|

इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः |  बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः ||[7]

अर्थात राष्ट्रभक्तों में समानता की भावना आवश्यक बताते हुए इस तथ्य को निरूपित किया गया है कि प्रत्येक राष्ट्र की भाषा, संस्कृति एवं भूमि ही सुखप्रदाता एवं श्रेयस्कर देवता है | इनकी ही उन्नति करने से वास्तविक राष्ट्रीय उन्नति संभव हो सकती है और राष्ट्रीय उन्नति से ही सामूहिक सुख प्राप्त हो सकता है|

शत्रुओं से राष्ट्र की रक्षा सबसे अहम बात है क्योंकि शत्रु ही सदैव एक संगठित राष्ट्र के टुकड़े करने के लिए उसकी अखंडता पर प्रहार करने के लिए अवसर खोजा करते हैं | इन राष्ट्रों के शत्रुओं से प्रहरियों को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं इसी परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में उल्लिखित है

परेह्यभीहि धर्ष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते |  इन्द्र नर्म्णं हि ते शवो हनो वर्त्रं जया अपोर्चन्न नु स्वराज्यम् |[8]

अर्थात स्वराज्य शासन की प्रतिष्ठा अविचल रखने के लिए आवश्यक है कि शत्रु का विनाश किया जाए | जिस प्रकार सूर्य को मेघ के हनन में कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता अपितु सहज रुप से ही उस का हनन हो जाता है इसी प्रकार राष्ट्रप्रेमी भक्तों की इस प्रकार सुव्यवस्था हो की शत्रुओं का बिना किसी चेष्ठा के ही नाश हो जावे | ऋग्वेद में राष्ट्रे जागृयाम वयम् के द्वारा राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रति सजगता का भाव मानवमात्र में सदैव विद्यमान रहने का आदेश प्राप्त होता है | प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध से परिचित होता था | राष्ट्र की रक्षा का दायित्व मात्र राजा का ही नहीं होता अपितु उसके लिए प्रजाजनों के प्रयास भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं

मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्[9]

अर्थात् राष्ट्रीय जनसमूह तुमसे गिरे नहीं | इस राष्ट्र के ना गिरने का अभिप्राय इसकी एकता और अखंडता से ही है |सामवेद में भी देश की एकता एवं अखंडता के आधारतत्त्वो की उपस्थिति स्पष्ट परिलक्षित है | देश के नागरिकों में विद्यमान देशप्रेम की भावना, मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा ही उन्हें प्राणोत्सर्ग के लिए उत्प्रेरित करती है | देश में विद्यमान इसी भावना को सामवेद के निम्न मंत्र में वर्णित किया गया है

आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्चद्वि मातरम् ।

क उग्राः के ह शृण्विरे ॥[10]

 

अर्थात् शास्त्रविद्या में चतुर योद्धा शस्त्र हाथ में लेकर मातृभूमि से पूछे कि कौनकौन देशद्रोही सुने जाते हैं | इससे स्पष्ट हो जाता है कि सच्चा राष्ट्रप्रेमी देश में देशद्रोह की भावना रखने वालों को सहन नहीं कर सकता है क्योंकि वह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं | सच्ची मातृभूमि ही वह भावना है जो कि राष्ट्र की एकता और अखंडता की आधारशिला है| इसी भावना की उपस्थिति एक राष्ट्र को और अधिक दृढ़ता प्रदान कर सकती है |

अथर्ववेद में स्वराज्य की कल्पना की गई है वह अथर्ववेद में उल्लिखित है-

 

नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात्पुरोषसः । यदजः प्रथमं संबभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय यस्मान् नान्यत्परमस्ति भूतम् [11]

 

इस मंत्र के द्वारा राष्ट्र की संचालन विधि को उत्तम ढंग से किस तरह प्रयोग किया जा सकता है, उसका वर्णन किया गया है | राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए राज्य संचालन की विधि से ही प्रजा संतुष्ट रहती है| और राष्ट्र के प्रति सद्भाव सद्विचार मनुष्य तभी रख पाता है जबकि वह अपने आप को सुरक्षित एवं शांतिपूर्ण राजनैतिक स्थितियों में पाता है | राष्ट्रभक्तों या देश के वासियों के लिए कुछ कर्तव्य निर्धारित किए जाते हैं जिसमें राष्ट्र की एकता और अखंडता का अस्तित्व सुरक्षित रहता है | दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्वराज्य में ही राष्ट्र की एकता एवं अखंडतका अस्तित्व सुरक्षित रहती है क्योंकि स्वशासन से ही स्वराष्ट्र का अस्तित्व बना रह सकता है | विदेशी शासन में चाहे जितनी भी उत्तम व्यवस्था क्यों ना हो स्वशासन से से किसी भी स्थिति में श्रेष्ठ नहीं हो सकता है |

अथर्ववेद में

माता भूमि पुत्रोऽहम पृथिव्या[12]

के द्वारा भूमि को माता तथा उस पर रहने वालों को उसके पुत्र कहा गया है |

मातृभूमि के आदर्श भक्तों में कुछ गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है अथर्ववेद में कहा गया है
सत्यं बृहद ॠतं उग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति” ।[13]

अर्थात् जिस राष्ट्र में देशभक्त, सत्यनिष्ठ, प्रचंड छात्रतेज, धर्मानुष्ठान एवं कर्तव्यपालन के गुणों से युक्त प्रत्येक शुभ कार्य को दक्षता पूर्वक संपन्न करते हैं तथा यथार्थ ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना रखते हैं| मातृभूमि या राष्ट्र के पालन पोषण करने में समर्थ होते हैं | वही अपना भूत वर्तमान और भविष्य में सब तरह से पोषित करने वाली मातृभूमि की रक्षा करके उसकी उन्नति के विस्तृत स्थान एवं अवसर प्रदान करें|

  • राष्ट्रीय एकता में साधक तत्व

 

 

  • संस्कृति

 

             भारतीय संस्कृति में ऐसा गुण है कि उसने मानव में सदैव मानवता का गुण समाहित किया है | हमारे वैदिक साहित्य, काव्य, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सभी ने भारतीयों के मन मस्तिष्क में नैतिक, आध्यात्मिक और सदाचार का ऐसा समावेश किया है कि उसको वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा सदैव साकार होती दृष्टिगोचर होती है |म्पूर्ण भारत में हम कहीं भी रहे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और गीता सभी भाषाओं में उपलब्ध है | उनके आदर्शों के अनुयाई देशभर में निवास करते हैं यह संस्कृति हमें एकता के सूत्र में बांधे रखती है |

 

 

  • संविधान में निष्ठा

 

           स्वतंत्रता के बाद हमारे संविधान का निर्माण किया गया जिसमें भारत के सभी वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व था | देश ने सभी लोगों को आत्मसात कर लिया था | जो अल्पसंख्यक थे, शरणार्थी थे या विदेशी थे उनके वर्ग के अनुसार ही उन्हें प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया | सबको धर्म की स्वतंत्रता प्रदान की गई अपने लिए व्यवसाय के चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई | सभी धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखा गया | राष्ट्र में कहीं भी निवास करने की एवं संपत्ति अर्जित करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई | ऐसे संविधान की छाया में जीवन व्यतीत करने वालों में वैमनस्यता जैसी भावना आने का प्रश्न ही कहां उठता है ?

  • धर्मनिरपेक्षता

 

           हमारा राष्ट्र एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और ऐसे राष्ट्र में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता | हम जब सभी धर्म वालों को सम्मान की दृष्टि से देखेंगे तो आपस में प्रेम और सद्भाव में वृद्धि अवश्य ही होगी | सभी धर्मों के लोग अपने पूजा स्थलों के निर्माण, पूजापद्धति अपनाने और अपने धार्मिक उत्सवों को पूर्ण करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं | एक हिंदू मुसलमान को ईद पर बधाई देता है तो मुसलमान दीपावली और होली पर प्रेम से सम्मिलित होते हैं | जहां इतने विशाल हृदय के लोग हो वहां एकता पर प्रश्न चिह्न कहां लगाया जाए ?

  • लोकतांत्रिक व्यवस्था

 

         स्वतंत्रता के बाद देश में संघात्मक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया इसमें देश में व्याप्त विविधता का पूर्ण रुप से सम्मान किया गया है | सभी वर्गों को अपनी सरकार चयन का अधिकार प्रदान किया गया है | शासन में उनकी अपनी भागीदारी से उनमें देश के प्रति निष्ठा में वृद्धि होती है | अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें संविधान से प्राप्त है |

 

  • अनेकता में एकता

 

           भारत एक विशाल देश है उसमें अनेकता होना स्वभाविक है | इसके बाद भी समग्र रुप से दृष्टिपात किया जाए तो इस अनेकता में भी एकता का सूत्र बंधा हुआ है| सदियों से यहां विभिन्न धर्म है लेकिन सब में एक दूसरे के प्रति सम्मान है | सामाजिक व्यवस्था में खानपान में प्रादेशिक रूप में विभिन्नता है, लेकिन दक्षिणवर्ती भारतीय व्यवस्थाएं उत्तर भारत में लोकप्रिय है | संपूर्ण राष्ट्र की भौगोलिक स्थितियां भिन्न भिन्न है फिर भी प्राचीन काल से ही यह राष्ट्र एकता के सूत्र में बंधा हुआ है |

  • स्वतंत्रता संग्राम

 

           भारत की आजादी के लिए जो महासंग्राम लड़ा गया था तब इस पर शहीद होने वाले वीर हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध सभी लोग थे| उस महायज्ञ में सब ने अपने अपने प्राणों की आहुति दी थी | अब स्वतंत्र भारत की खुली हवा में हमने सांस ली है कोई नहीं भूलता है उन बलिदानों को| भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की बलिदान गाथा आज भी नौजवानों को एक स्वर में जय हिंद और भारत माता की जय का लगाने के लिए पर्याप्त है | यह सभी तत्व है जिससे लाखों विभिन्नताओं के बाद भी यदि देश पर संकट आता है तो पूरा राष्ट्र एक स्वर में संकट का जवाब देने के लिए तैयार रहता है | पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सिर्फ एक भारत अखंड राष्ट्र के रूप में स्थाई राष्ट्र है |

 

 

 

 

  • राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के बाधक तत्व

 

                                भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां विभिन्नता में एकता पाई जाती है फिर भी यह विभिन्नता कहीं-कहीं अपना संकुचित दृष्टिकोण इस तरह से अपनाने लगती है कि देश में विभिन्न दृष्टिकोण आपस में ही संघर्ष करने लगते हैं और जब यह विघटनकारी तत्व पनपने लगते हैं तो देश की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा पैदा हो जाता है |

  • जाति

 

             हमारे देश में विभिन्न धर्मों के साथ विभिन्न जातियां निवास करती हैं | जिनमें कुछ उच्च और कुछ निम्न कहलाती हैं | सदियों से उच्च जातियों ने निम्न जातियों का शोषण किया है सिर्फ हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमान, सिक्ख और इसाई भी अनेक जातियों में बटें हुए हैं | स्वतंत्रता के बाद संविधान द्वारा सबको समान अधिकार दिया गया है जातिगत राजनीतिक दलों के निर्माण के कारण जातीय तनाव में वृद्धि हुई है | जातिभेद संकीर्णता के द्योतक हैं और जातियों के मध्य द्वेष और वैमनस्य बढ़ाते हैं | यह स्थितियां राष्ट्र की एकता एवं अखंडता में बाधक सिद्ध होती है |

 

  • सांप्रदायिकता

 

                सांप्रदायिकता हमारे विद्वानों, धर्मगुरुओं और दार्शनिकको ने एक ही ईश्वर के अस्तित्व को  स्वीकार किया है चाहे वे ईश्वर कहें या खुदा कहें अथवा यीशु कहें किसी ने भी कभी भी दूसरे धर्म के प्रति विद्वेश रखने की बात स्वीकार नहीं की है | सांप्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टि कोण हैं | संसार में विविध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को सभी ने  स्वीकार किया है यथा प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा और पवित्रता आदि  सभी धर्मों में मान्य हैं | सच्चा धर्म कभी एक दूसरे से घृणा करना या वैर करना नहीं सिखाता | लेकिन धर्म की नाम पर राजनीति करने वालों ने धर्म के नाम पर दीवार घड़ी की है और यह दीवार देश की एकता में बाधक बन सकती है |

  • भाषावाद

 

    1.                  भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है यहां अनेक भाषाएं विभाषाये और बोलियां प्रचलित हैं | यद्यपि स्वतंत्र भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है | लेकिन भाषायी संकीर्णता भी अपना सिर उठाने लगी है | भाषा के आधार पर राज्यों की मांग सिर उठाने लगी है | हिंदी के विरोध में उर्दू और अन्य प्रादेशिक भाषाएं भी विवाद का कारण बन कर मानव मानव के मध्य भे पैदा कर रही है, और यह विभेद राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बाधक साबित हो रहे हैं |
  • क्षेत्रवाद

 

    1.                        एक संघराष्ट्र के लिए उसके प्रांत एक अभिन्न अंग होते हैं | संघ में सभी प्रांतों को बराबर अधिकार प्रदान किए गए हैं | अंग्रेजों ने हमें सिर्फ धर्म के आधार पर ही नहीं बांटा अपितु पक्षेत्रीय आधार पर भी बांट दिया | कभी प्रान्त को लेकर, कभी भाषा को लेकर, प्रांतीयता की बात होने लगती है और यह प्रांत स्वराज्य की मांग भी करते हैं | जो संघ के शासन में रहने से इनकार करते हैं इन मांगों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है |
  • राजनैतिक क्षुद्रता

 

    1.                    राष्ट्र के लिए सर्वाधिक घातक देश में राजनैतिक क्षुद्रता का होना है | अपने स्वार्थसिद्धि के लिये ये लोगो के प्राण लेने के लिये भी तत्पर रहते है | भारत में दो चार राजनैतिक दलों को छोड़कर शेष सभी देश का अहित करने में तत्पर रहते है | अब तो राजनीती में घटियेपन्न की भी प्रतियोगिता होने लगी है की अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कोन निम्न से भी निम्नस्तर को छू सकता है | अब राजनीती में एक से बढ़कर एक निम्न स्तर के लोग आ गये है जो खाते भारत का है और गीत दुश्मन देशों के गाते है | अतः देश की प्रजा को बचाए रखने के लिए ऐसे राजनैतिक दलों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है |
  • आर्थिक विषमता

 

    1.                    देश में व्याप्त आर्थिक विषमता थी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मार्ग में बाधक बन जाती है जो लोग अत्यधिक निर्धन हैं या अभावग्रस्त हैं जिन्हें दिनभर ड़ी मेहनत के बाद भी पेट भर भोजन नहीं मिलता वे अपने मालिको या बड़े-बड़े बंगलो में सुख सुविधाओं से युक्त जीवन जीने वालों के प्रति ईर्ष्या का भाव रखे तो स्वभाविक नहीं कर कहा जा सकता है | आर्थिक विषमता ने वर्गसंघर्ष के सिद्धांत को जन्म दिया है| यह आर्थिक विषमता सदैव ही राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए है |
  • आतंकवादी गतिविधिया                      सारांश रूप में कहा जा सकता है कि आज की विषम परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता एवम् अखंडता को भारतीय समाज में जीवित रखने का प्रयास ही एक ज्वलन्त समस्या है | हमारा देश इस समय ऐसी भयावह स्थिति का सामना कर रहा है जिसका समुचित एवं सार्थक समाधान यदि शीघ्र नहीं हो सका तो भारतीय समाज को विघटित होने से बचा पाना बहुत ही कठिन हो जाएगा | कुछ बाह्य एवम आंतरिक शक्तियों द्वारा अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए धार्मिक संकीर्णता के आधार पर मनुष्य को बांटने वाली राजनीति की जा रही है | मानव कल्याण की भावनाओं को त्याग कर उच्च मूल्यों से विमुख होकर आज धर्म पर आधारित राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है | राष्ट्रीय एकता एवम् धर्मनिरपेक्षता के विपरीत भारतीय समाज के विभिन्न वर्ण अपनीअपनी व्यक्तिगत, धार्मिक, क्षेत्रीय एवं जातीय विचारधाराओं तथा मान्यताओं के आधार पर देश को बांटने के प्रयास कर रहे हैं | ऐसी विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए राष्ट्रीय एकता एवम् धर्म –निरपेक्षता की परम आवश्यकता है |

 

  1.                  देश में आतंकवादी गतिविधियों ने संपूर्ण राष्ट्र की जड़ों को हिला दिया है कभी कश्मीर में सामूहिक हत्या का तांडव होता है| कभी बिहार में गांव उजाड़ दिया जाता है कभी मुजफ्फरनगर तो कभी सहारनपुर तो कभी पश्चिम बंगाल ये सब स्थान कहीं ना कहीं आतंकवादी गतिविधियों के केंद्र बनते जा रहे हैं |इन सब का अर्थ क्या समझा जा सकता है ? हम अखंड राष्ट्र में निर्भीक जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? हम अपने ही देश में डर-डर कर जी रहे हैं ? यह सब देश की राष्ट्रीय एकता एवम अखंडता के लिए अभिशाप है

शोध छात्र गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार उत्तराखंड, ९८९९८७५१३०, sandeep.gurukul@gmail.com

 

यजुर्वेद २८/२२

अथर्ववेद ६/७८/२

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

संस्कृत परिचायिका, पृष्ठ ५९ (मुख्यतः पद्मपुराण से )

ऋग्वेद 5।60।5

ऋग्वेद ५/५९/६

ऋग्वेद १/१३/९

ऋग्वेद १/८०/३

यजुर्वेद ७.२०

सामवेद २/२१६

अथर्ववेद १०/७/३१

अथर्ववेद १२.१.१२

अथर्ववेद १२.१.१

 

 

[1] यजुर्वेद २८/२२

[2] अथर्ववेद ६/७८/२

[3] राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

 

[4] संस्कृत परिचायिका, पृष्ठ ५९ (मुख्यतः पद्मपुराण से )

[5]  ऋग्वेद 5।60।5

[6] ऋग्वेद ५/५९/६

[7] ऋग्वेद १/१३/९

[8] ऋग्वेद १/८०/३

[9] यजुर्वेद ७.२०

[10] सामवेद २/२१६

[11] अथर्ववेद १०/७/३१

[12] अथर्ववेद १२.१.१२

[13] अथर्ववेद १२.१.१

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