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नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व

(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

– नवीन मिश्र

स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के ३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख  पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-

‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और ईसाइयत का पोषक है।’’

‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया। वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा। मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य। पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव डाली।’’

हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया। वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  की विरोधी। यह राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  के विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक प्रवित्तियों  को पोषण मिला। आर्य समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे) स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी। पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त  है।

हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम खोज निकाला और उन्हें अपनी गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया। पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् ९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़ भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात् प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १ लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।

स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए- भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है- समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय कलङ्क ये थे-

१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।

२. जन्मना जाति-पाँतवाद।

३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।

४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों, पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों का जनता पर आतंक।

५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों को दूर न किया जायेगा, तो विदशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।

दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।

विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त  और प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता। विवेकानन्द के सामने भारतीयों का ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।

आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा। विवेकानन्द के निम्न श     दों पर विचार करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)

मनुष्य और ईसा में अन्तरः अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं, स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।

इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान् दिग्गज व्यक्ति      व दो ईश्वर समस्त संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’

कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की। महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म को देश से बाहर निकाल देने वाले शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो सकता है? विश्व  हिन्दू परिषद् वाले स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते। यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों बुरा लगता है?

मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश को ईसाई होने से नहीं बचा सकते। भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें आपत्ति  क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात् ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है, जिसका नाम ईश्वर के  साथ जोड़ा जाए और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग प्राप्त न हो।

भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते हैं।

– आर्यसमाज, अजमेर

आदर्श संन्यासी – स्वामी विवेकानन्द भाग -२ : धर्मवीर जी

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दिनांक २३ अक्टूबर २०१४ को रामलीला मैदान, नई दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की ओर से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया। इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। उन्होंने श्रद्धाञ्जलि देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धाञ्जलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतीक अधिक थे। वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा- ‘इस देश के महापुरुषों में पहला स्थान स्वामी विवेकानन्द का है तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का है।’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी द्योतक है। सामान्य रूप से महापुरुषों की तुलना नहीं की जाती। विशेष रूप से जिस मञ्च पर आपको बुलाया गया है, उस मञ्च पर तुलना करने की आवश्यकता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना की जाती है। छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती। यदि तुलना करनी है तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि में तुलना करना न्याय संगत होगा।

श्री वी.के. सिंह ने जो कुछ कहा उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता है, वही कहता है। यह आयोजकों का दायित्व है कि वे देखें कि बुलाये गये व्यक्ति के विचार क्या है। यदि भिन्न भी है तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट श     दों में उनकी बातों का उ ार दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना संगठन के लिए लज्जाजनक है। इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत है।

‘मेरठ में वे २५९ नंबर, रामबाग में, लाल नन्दराम गुप्त की बागान कोठी में ठहरे। अफगानिस्तान के आमीर अ  दुर रहमान के किसी रिश्तेदार ने उस बार साधुओं को पुलाव खिलाने के लिए कुछ रुपये दिए थे। स्वामी जी ने उत्साहित होकर रसोई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। और दिनों में भी स्वामी जी बीच-बीच में रसोई में मदद किया करते थे। स्वामी तुरीयानन्द को खिलाने के लिए वे एक दिन खुद ही बाजार गये, गोश्त खरीदा, अंडे जुगाड़ किये और कई लजीज पकवान पेश किए।’ (वही पृ. ९२)

‘मेरठ में स्वामी जी अपने गुरुभाइयों को जूते-सिलाई से लेकर चण्डीपाठ और साथ ही पुलाव कलिया पकाना सिखाते रहे। एक दिन उन्होंने खुद ही पुलाव पकाया। मांस का कीमा बनवाया। कुछेक सींक-कबाब भी बनाने का मन हो आया। लेकिन सींक कहीं नहीं मिली। तब स्वामी जी ने बुद्धि लगाई और सामने के पीच के पेड़ से चंद नर्म-नर्म डालियाँ तोड़ लाए और उसी में कीमा लपेट कर कबाब तैयार कर लिया। यह सब उन्होंने खुद पकाया, सबको खिलाया, मगर खुद नहीं खाया। उन्होंने कहा ‘तुम सबको खिलाकर मुझे बेहद सुख मिल रहा है।’  (वही पृ. ९२)

‘स्वामी जी ने अमेरिका से एक होटल का विवरण भेजा ‘‘यहाँ के होटलों के बारे में क्या कहूँ? न्यूयार्क में मैं एक ऐसे होटल में हूँ, जिसका प्रतिदिन का किराया ५००० तक है। वह भी खाना-पीना छोड़कर। ये लोग दुनिया के धनी देशों में से हैं। यहाँ रुपये ठीकरों की तरह खर्च होते हैं। होटल में मैं शायद ही कभी रुकता हूँ, ज्यादातर यहाँ के बड़े-बड़े लोगों का मेहमान होता हूँ।’’विदेश में ग्रेंड-डिनर कैसा होता है, इसका विवरण विवेकानन्द ने खुद दिया है ‘‘डिनर ही मुख्य भोजन होता है। अमीर हैं तो उनका रसोइया फ्रेंच होता है और चावल भी फ्रांस का। सबसे पहले थोड़ी सी नमकीन मछली या मछली के अण्डे या कोई चटनी या स      जी। यह भूख बढ़ाने के लिए होता है। उसके बाद सूप। उसके बाद आजकल के फैशन के मुताबिक एक फल। उसके बाद मछली। उसके बाद मांस की तरी! उसके बाद थान-गोश्त का सींक कबाब! साथ कच्ची स  जी! उसके बाद आरण्य मांस-हिरण वगैरह का मांस और बाद में मिठाई। अन्त में कुल्फी। मधुरेण समापयेत्।’’ प्लेट बदलते समय कांटा चम्मच भी बदल दिये जाते हैं। खाने के बाद बिना दूध की काफी।’ (वही पृ. ९५)

‘एक दिन भाई महेन्द्र से विवेकानन्द ने पूछा ‘क्या रे, खाया क्या?’ अगले पल उन्होंने सलाह दे डाली ‘रोज एक जैसा खाते-खाते मन ऊब जाता है। घर की सेविका से कहना, बीच-बीच में अण्डे का पोच या ऑमलेट बना दिया करे, तब मुंह का स्वाद बदल जाएगा।’ (वही पृ. ९७)

‘एक और दिन करीब डेढ़ बजे स्वामी जी ने अपने भक्त मिस्टर फॉक्स से कहा ‘ध     ा तेरे की’! रोज-रोज एक जैसा उबाऊ खाना नहीं खाया जाता! चलो अपन दोनों चलकर किसी होटल में खा आते हैं।’ (वही पृ. ९७)

‘एक दिन शाम के खाने के लिए गोभी में मछली डालकर तरकारी पकाई गई थी। उनके साथ उनके भक्त और तेज गति के भाषण लेखक गुडविन भी थे। गुडविन ने वह स   जी नहीं खाई। उसने स्वामी जी से पूछा ‘आपने मछली क्यों खाई?’ स्वामी जी ने हंसते-हंसते जवाब दिया ‘अरे वह बुढ़िया सेविका मछली ले आई। अगर नहीं खाता तो इसे नाली में फेंक दिया जाता। अच्छा हुआ न मैंने उसे पेट में फेंक दिया।’  (वही पृ. ९८)

‘मेज पर स्वामी जी की पसन्द की सारी चीजें नजर आ रही हैं- फल, डबल अण्डों की पोच, दो टुकड़े टोस्ट, चीनी और क्रीम समेत दो कप काफी।’ (वही पृ. १०३)

‘पारिवारिक भ्रमण पर निकलते हुए स्वामी जी का आदिम तरीके से क्लेम या सीपी खाना। गर्म-गर्म सीपी में उंगली डालकर मांस निकालने के लिए एक खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है। लेकिन कीड़े-मकोड़े-केंचुओं के देश से सीधे अमेरिका पहुँचकर, यह सब सीखने में स्वामी जी को जरा भी वक्त नहीं लगा।’ (वही पृ. १०३)

‘उसी परिवार में स्वामी जी के दोपहर-भोजन का एक संक्षिप्त विवरण- मटन (बीफ या गाय का गोश्त हरगिज नहीं) और तरह-तरह की साग-स िजयाँ, उनके परमप्रिय हरे मटर, उस वक्त डेजर्ट के तौर पर मिठाई के बजाय फल-खासकर अंगूर।’ (वही पृ. १०३)

‘विवेकानन्द ही एकमात्र ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने पाश्चात्य देशों में वेदान्त और बिरयानी को एक साथ प्रचारित करने की दूरदर्शिता और दुस्साहस दिखाया।’ (वही पृ. ११०)

‘इससे पहले लन्दन में भी स्वामी जी ने पुलाव-प्रसंग पर भी अपनी राय जाहिर की है। प्याज को पलाशु कहते हैं- पॅल का मतलब है मांस। प्याज को भूनकर खाया जाए, तो वह अच्छी तरह हजम नहीं होता। पेट के रोग हो जाते हैं। सिझाकर खाने से फायदेमंद होता है और मांस में जो ‘कस्टिवनेस’ होता है वह नष्ट हो जाते हैं।’ (वही पृ. ११२)

‘पुलाव पर्व का मानो कहीं कोई अन्त नहीं। पहली बार अमेरिका जाने से पहले, स्वामी जी बम्बई में थे। अचानक उनके मन में इच्छा जागी कि अपने हाथ से पुलाव पकाकर सबको खिलाया जाय। मांस, चावल, खोया खीर वगैरह, सभी प्रकार के उपादान जुटाये गये। इसके अलावा यख्नी का पानी तैयार किया जाने लगा। स्वामी जी ने यख्नी के पानी से थोड़ा-सा मांस निकाल कर चखा। पुलाव तैयार कर लिया गया। इस बीच स्वामी जी दूसरे कमरे में जाकर ध्यान में बैठ गये। आहार के समय सभी लोगों ने बार-बार उनसे खाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने कहा ‘मेरा खाने का बिल्कुल मन नहीं है। मैं तो पकाकर तुम लोगों को खिलाना चाहता था। इसलिए १४ रुपये खर्च करके हंडिया भर पुलाव बनाया है। जाओ तुम लोग खा लो और स्वामी जी दुबारा ध्यानमग्न हो गये।’ (वही पृ. ११२)

‘मिर्च देखते ही स्वामी का ब्रेक फेल हो जाता।’  (वही पृ. ११४)

‘अमेरिका में एक बार स्वामी जी फ्रेंच रेस्तराँ में पहुँच गये। वहाँ की चिंगड़ी मछली खाने के बाद घर आकर उन्होंने खूब-खूब उल्टियाँ की। बाद में ठाकुर रामकृष्ण को याद करते हुए, उन्होंने कहा ‘मेरे रंग-ढंग भी अब उस बूढ़े जैसे होते जा रहे हैं। किसी भी अपवित्र व्यक्ति का छुआ हुआ खाद्य या पानी उनका भी तन-मन ग्रहण नहीं कर पाता था।’ (वही पृ. ११६)

‘विद्रोही विवेकानन्द की उपस्थिति हम उनके खाद्य-अभ्यास में खोज सकते हैं और पा सकते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि दूध और मांस का एक साथ सेवन नहीं करना चाहिए। लेकिन स्वामी जी इन सबसे लापरवाह दूध और मांस दोनों ही विपरीत आहारों के खासे अभ्यस्त हो गये थे।’ (वही पृ. ११८)

‘इसी तरह एक बार आईसक्रीम का मजा लेते हुए उच्छवासित होकर कहा- ‘मैडम, यह तो फूड फॉर गॉड्स है। अहा सचमुच स्वर्गोयम्’ (वही पृ. १२०)

‘शिष्य शरच्चन्द्र की ही मिसाल लें। पूर्वी बंगाल का लड़का। स्वामी जी का आदेश था। ‘गुरु को अपने हाथों से पकाकर खिलाना होगा।’ मछली, स       जी और पकाने की अन्यान्य उपयोगी सामग्रियाँ लेकर शिष्य शरच्चन्द्र करीब आठ बजे बलराम बाबू के घर में हाजिर हो गया। उसे देखते ही स्वामी जी ने निर्देश दिया, तुझे अपने देश जैसा खाना पकाना होगा। अब शिष्य ने घर के अन्दर रसोई में जाकर खाना पकाना आरम्भ किया। बीच-बीच में स्वामी जी अन्दर आकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे। कभी उसे मजाक-मजाक में छेड़ते भी रहते- ‘देखना मछली का ‘जूस’ (रंग) बिल्कुल बांग्लादेशी जैसा ही हो।’

‘अब इसके बाद की घटना शिष्य की जुबानी ही सुनी जाए- ‘भात, मूंग की दाल, कोई मछली का शोरबा, खट्टी मछली, मछली की ‘सुक्तिनी’ तो लगभग तैयार हो गया। इस बीच स्वामी जी नहा-धोकर आ पहुँचे और खुद ही प  ो में ले-ले कर खाने लगे। उनसे कई बार कहा भी गया कि अभी और भी कुछ-कुछ पकाना बाकी है, मगर उन्होंने एक न सुनी। दुलरुवा बच्चे की तरह कह उठे ‘जो भी बना है फटाफट ले आ, मुझसे अब इन्तजार नहीं किया जा रहा। मारे भूख के पेट जला जा रहा है।’ शिष्य कभी भी पकाने-रांधने में पटु नहीं था, लेकिन आज स्वामी जी उसके पकाने की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कलक    ाा के लोग मछली की सुक्तिनी के नाम पर ही हंसी-मजाक करने लगते हैं। लेकिन स्वामी जी ने वही सुक्तिनी खाकर कहा ‘यह व्यञ्जन मैंने कभी नहीं खाया।’ वैसे मछली का जूस जितना मिर्चदार है, इतनी मिर्चदार बाकी सब नहीं हुई। ‘खट्टी’ मछली खाकर स्वामी जी ने कहा ‘यह बिल्कुल वर्धमानी किस्म की हुई है।’ अब स्वामी जी ने अपने शिष्य से बेहद मह      वपूर्ण बात कही, ‘जो अच्छा पका नहीं सकता, वह अच्छा साधु हरगिज नहीं हो सकता।’  (वही पृ. १२२)

‘अपनी महासमाधि के कुछ दिनों पहले स्वामी जी ने इसी शिष्य को कैसे खुद पकाकर खिलाया था, यह जान लेना भी बेहतर होगा।’ (वही पृ. १२२)

‘उन दिनों स्वामी जी का कविराजी इलाज जारी था। पाँच-सात दिनों से पानी-पीना बिल्कुल बन्द था, वे सिर्फ दूध पर चल रहे थे। ये वही शख्स थे जो घण्टे-घण्टे में पाँच-सात बार पानी पीते थे। शिष्य मठ में ठाकुर को भोग लगाने के लिए एक रूई मछली ले आया। मछली काट-कूट ली जाए, तो उसका अगला हिस्सा ठाकुर के भोग के लिए निकाल कर थोड़ा-सा हिस्सा अंग्रेजी पद्धति से पकाने के लिए स्वामी जी ने खुद ही मांग लिया। आग की आँच में उनकी प्यास बढ़ जाएगी, इसलिए मठ के लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे पकाने का इरादा छोड़ दें। लेकिन स्वामी जी ने उन लोगों की एक न सुनी। दूध, बर्मिसेली, दही वगैरह डालकर उन्होंने चार-पाँच तरह से मछली पका डाली। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ने पूछा, क्यों कैसी लगी? शिष्य ने जवाब दिया ‘ऐसा कभी नहीं खाया।’ शिष्य ने बर्मिसेली कभी नहीं खाई थी। उसने जानना चाहा कि यह कौन सी चीज है? स्वामी जी को मजाक सूझा। उन्होंने हंसकर कहा- यह विलायती केंचुआ है। इन्हें मैं लन्दन से सुखाकर लाया हूँ।’ (वही पृ. १२२-१२३)

‘समयः- मार्च १८९९ स्थान बेलुड़ मठ। इस लञ्च के कुछेक दिन पहले ही बिना किसी नोटिस के सिस्टर निवेदिता को उन्होंने वेलुड़ में ही सपर खिलाया था। उस दिन का मेन्यू था- कॉफी, कोल्ड मटन, ब्रेड एण्ड बटर। स्वयं स्वामी जी ने सामने बैठकर परम स्नेह से निवेदिता को खिलाया और नाव से कलक ाा वापस भेज दिया।’

‘अगले इतवार के उस अविस्मरणीय लञ्च का धारा-विवरण वे मिस मैक्लाइड को लिखे गए एक पत्र में रख गए हैं। ‘वह एक असाधारण सफलता थी। काश तुम भी वहाँ होतीं, स्वामी जी ने उस दिन अपने हाथ से खाना पकाया था, खुद ही परोसा भी था। हम दूसरी मंजिल पर एक मेज के सामने बैठे थे। सरला पूर्व की तरफ मुंह किए बैठी थी, ताकि उसे गंगा नजर आती रहे। निवेदिता ने इस लञ्च को नाम दिया था ‘भौगोलिक लञ्च’ क्योंकि एक ही मेज पर समूचे विश्व के पकवान जुटाये गये थे। सारे व्यञ्जन स्वामी जी ने खुद पकाये थे। खाना पकाते-पकाते ही, उन्होंने निवेदिता को एक बार तम्बाकू सजा लाने को कहा, आइए, इस अतिस्मरणीय मेन्यू का विवरण सुनाएँ-

१. अमेरिकी या यांकी-फिश चाउडर।

२. नार्वेजियन- फिश-बॉल या मछली के बड़े- ‘यह व्यञ्जन मुझे मैडम अगनेशन ने सिखाया था’ स्वामी जी ने मजाक-मजाक में बताया। यह मैडम कौन हैं, स्वामी जी वे क्या करती हैं? मुझे भी उनका नाम सुना-सुना लग रहा है। उ  ार मिला, ‘और भी बहुत कुछ करती हैं, साथ में फिश-बॉल भी पकाती हैं।’

३. इंग्लिश या यांकी- बोर्डिंग हाउस हैश। स्वामी जी ने आश्वस्त किया कि यह ठीक तरह से पकाया गया है और इसमें प्रेक मिलाया गया है। लेकिन प्रेक? इसके बजाय हमें उसमें लौंग मिली, अहा रे! प्रेक न होने की वजह से हमें अफसोस होता।’

४. कश्मीरी- मिन्सड पाई आ ला कश्मीरा। बादाम और किशमिश समेत मांस का कीमा।

५. बंगाली- रसगुल्ला और फल। पकवान का विवरण सुनकर विस्मित होना ही चाहिए।’ (वही पृ. १२६)

४ जुलाई १९०२ शुक्रवार को स्वामी जी ने क्या दोपहर का, आखरी भोजन ग्रहण किया था? अलबत खाया था। इलिश मछली,  जुलाई का महीना, सामने ही गंगा नदी। इलिश मछली के अलावा अगर और कुछ पकाया गया तो दुनिया के लोग कहते- यह शख्स निहायत बेरसिक है। नितान्त रसहीन। आसन्न वियोगान्त नाटक की परिणति का आभास किसी को भी नहीं था। ४ जुलाई की सुबह। स्वामी प्रेमानन्द का विवरण पढ़ने लायक है। ‘इस वर्ष पहली बार गंगा की एक इलिश मछली खरीदी गई। उसकी कीमत को लेकर कितने ही हंसी-मजाक हुए। कमरे में एक बंगाली लड़का भी मौजूद था। स्वामी जी ने उससे कहा- ‘सुना है नई-नई मछली पाकर तुम लोग उसकी पूजा करते हो, कैसे पूजा की जाती है, तू भी कर डाल।’ आहार के समय बेहद तृप्ति के साथ रसदार इलिश मछली और अम्बल की भुजिया खाई। आहार के बाद उन्होंने कहा ‘एकादशी व्रत करने के बाद भूख काफी बढ़ गई है। लोटा-कटोरी भी चाट-चूटकर मैंने बड़ी मुश्किल से छोड़ी।’

‘उन्हें एक और चीज भी पसन्द थी- कोई मछली। शिमला स्ट्रीट की द  ा-कोठी में यह मजाक मशहूर था- कोई मच्छी दो तरह की होती है, सिख कोई और  गोरखा कोई। सिख कोई लम्बी-लम्बी होती है और गोरखा कोई बौनी, लेकिन काफी दमदार।’ (वही पृ. १२८)

पहली बार अमेरिका जाने के लिए बम्बई में जहाज पर सवार होने से पहले स्वामी जी का अचानक कोई मछली खाने का मन हो आया। उस समय बम्बई में कोई मछली मिलना मुश्किल था। भक्त कालीपद ने ट्रेन से आदमी भेजकर काफी मुश्किलें झेलकर विवेकानन्द को कोई मछली खिलाने का दुर्लभ सौभाग्य अर्जित किया।’ (वही पृ. १२८)

‘किसी-किसी भक्त के यहाँ जाकर वे खुद ही मेन्यू तय कर देते थे। कुसुम कुमारी देवी बता गई हैं, ‘मेरे घर आकर उन्होंने उड़द की दाल और कोई मछली का शोरबा काफी पसन्द किया था।’ (वही पृ. १२८)

स्वामी जी की पसन्द-नापसन्द के मामले में मटर की दाल और कोई मछली का दुर्दान्त प्रतियोगी है- इलिश और पोई साग। स्वामी जी की महासमाधि के काफी दिनों बाद भी एक  स्नेहमयी ने अफसोस जाहिर किया ‘पोई साग के साथ चिंगड़ी मछली बनती है, तो नरेन की याद आ जाती है।’ (वही पृ. १२९)

‘जैसे चाबी और ताला, हांडी और आहार, शिव और पार्वती की जोड़ी बनी है, उसी तरह स्वामी जी के जीवन में इलिश मछली और पोई साग की जोड़ी घर कर गई थी। कान खींचते ही जैसे सिर आगे आ जाता है। उसी तरह घर इलिश आते ही स्वामी जी पोई साग की खोज करते थे। अब सुनें, इलाहबाद के सरकारी कर्मचारी, मन्मथनाथ गंगोपाध्याय का संस्मरण।

एक बार स्वामी जी स्टीमर से गोयपालन्द जा रहे थे। एक नौका पर सवार मछेरे अपने जाल में इलिश मछली बटोर रहे थे। स्वामी जी ने अचानक कहा ‘तली हुई इलिश खाने का मन हो रहा है।’ स्टीमर चालक समझ गया कि स्वामी जी सभी खलासियों को इलिश मछली खिलाना चाहते हैं। नाविकों से मोलभाव करके उसने बताया, ‘एक आने में एक मछली, तीन-चार मछलियां काफी होंगी।’ स्वामी जी ने छूटते ही निर्देश दिया ‘तब एक रुपइया की मछली खरीद ले। बड़ी-बड़ी सोलह इलिश ले ले और साथ में दो-चार फाव में।’ स्टीमर एक जगह रोक दिया गया।’

स्वामी जी ने कहा ‘पोई साग भी होता, तो मजा आ जाता। पोई साग और गर्म-गर्म भात। गांव करीब ही था। एक दुकान में चावल तो मिल गया। मगर वहाँ बाजार नहीं लगता था। पोई साग कहाँ से मिले? ऐसे में एक सज्जन ने बताया, ‘चलिए, मेरे घर की बगिया में पोई साग लहलहा रहा है। लेकिन मेरी एक शर्त है, एक बार मुझे स्वामी जी के दर्शन कराने होंगे।’ (वही पृ. १२९)

रोग सूची-  (वही पृ. १५८, १८९)

‘दूसरी बार विदेश-यात्रा के समय उन्होंने मानसकन्या निवेदिता से जहाज में कहा था- ‘हम जैसे लोग चरम की समष्टि हैं। मैं ढेर-ढेर खा सकता हूँ और बिल्कुल खाये बिना भी रह सकता हूँ। अविराम धूम्रपान भी करता हूँ और उससे पूरी तरह विमुख भी रह सकता हूँ। इन्द्रियदमन की मुझमें इतनी क्षमता है, फिर भी इन्द्रियानुभूति में भी रहता हूँ। नचेत दमन का मूल्य कहाँ है।’ (वही पृ. १६०)

‘उनके शिष्य शरच्चन्द्र चक्रवर्ती पूर्वी बंगाल के प्राणी थे। स्वामी जी ने उनसे कहा था- ‘सुना है पूर्वी बंगाल के गांव-देहात में बदहजमी भी एक रोग है, लोगों को इस बात का पता ही नहीं है। शिष्य ने जवाब दिया- ‘जी हाँ, हमारे गाँव में बदहजमी नामक कोई रोग नहीं है। मैंने तो इस देश में आकर इस रोग का नाम सुना। देश में तो हम दोनों जून मच्छी-भात खाते हैं।’

‘हाँ, हाँ, खूब खा। घास-प   ो खा-खाकर पेट पिचके बाबा जी लोग समूचे देश में छा गये हैं। वे सब महातमोगुण सम्पन्न हैं? तमोगुण के लक्षण हैं- आलस्य, जड़ता, मोह, निद्रा, यही सब।’ (वही पृ. १६४)

‘हमने यह भी देखा कि उनका धूम्रपान बढ़ गया था। उसमें नया आकर्षण भी जुड़ गया, नई-नई आविष्कृत अमेरिका की आइसक्रीम…..।’ (वही पृ. १८८)

‘किसी भक्त ने सवाल किया ‘स्वामी जी, आपकी सेहत इतनी जल्दी टूट गई, आपने पहले से कोई जतन क्यों नहीं किया।’ स्वामी जी ने जवाब दिया- ‘अमेरिका में मुझे अपने शरीर का कोई होश ही नहीं था।’ (वही पृ. १८८)

‘दोपहर ११.३० अपने कमरे में अकेले खाने के बजाय, सबके साथ इकट्ठे दोपहर का खाना खाया- रसदार इलिश मछली, भजिया, चटनी वगैरह से भात खाया।’ (वही पृ. २०५)

‘शाम ५ बजे- स्वामी जी मठ में लौटे। आम के पेड़ तले, बैंच पर बैठकर उन्होंने कहा- ‘आज जितना स्वस्थ मैंने काफी अर्से से महसूस नहीं किया।’ तम्बाकू पीकर पाखाने गऐ। वहाँ से लौटकर उन्होंने कहा- ‘आज मेरी तबियत काफी ठीक है।’ उन्होंने स्वामी रामकृष्णानन्द के पिता श्री ईश्वरचन्द्र चक्रवर्ती से थोड़ी बातचीत की।’

रात ९ बजे-इतनी देर तक स्वामी जी लेटे हुए थे, अब उन्होंने बाईं करवट ली। कुछ सैकेण्ड के लिए उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया। स्वामी जी के माथे पर पसीने की बूंदें। अब बच्चों की तरह रो पड़े।

रात ९.०२ से ९.१० बजे तक गहरी लम्बी उसांस, दो मिनट के लिए स्थिर, फिर गहरी सांस, उनका सिर हिला और माथा तकिये से नीचे लुढ़क गया। आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति और हँसी।’ (वही पृ. २०६)

इस सारे विवरण को पढ़ने के बाद यदि कोई कहता है कि स्वामी विवेकानन्द इस देश के सर्वोच्च महापुरुष थे और ऋषि दयानन्द सरस्वती दूसरे पायदान पर आते हैं तो मेरा उनसे आग्रह होगा कि वे अपने वक्तव्य में संशोधन कर लें और कहें – स्वामी विवेकानन्द इस देश के महापुरुषों में पहले पायदान पर हँ और ऋषि दयानन्द सीढ़ी के अन्तिम पायदान पर हैं तो हम बधाई देंगे। हमारे वन्दनीय तो फिर भी ऋषि दयानन्द ही होंगे क्योंकि इस इस देश के ऋषियों ने महानता का आदर्श धन, बल, सौन्दर्य, विद्व       ाा, वक्तित्व आदि को नहीं माना, उन्होंने बड़प्पन का आधार सदाचार को माना है। इसलिए मनु महाराज कहते हैं-

यह देश सच्चरित्र लोगों के कारण सारे संसार को शिक्षा देता रहा है। जैसा कि

ऐतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

टिप्पणी

पुस्तक का नामविवेकानन्द- जीवन के अनजाने सच

प्रकाशकपेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली

– धर्मवीर

 

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आदर्श सन्यासी -स्वामी विवेकानन्द : प्रो धर्मवीर

vivekanand

दिनाक 23  अक्टूबर 2014   को रामलीला मैदान,न्यू दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की और से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया.  इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थें1 उन्होंने श्रद्धांजलि  देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धांजलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतिक अधिक थें.  वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा-‘इस देश के महापुरषो में पहला स्थान स्वामी विवेकानंद का हैं1 तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का हैं’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी घोतक हैं.  सामान्य रूप से महापुरषो की तुलना नहीं की जाती.  विशेष रूप से जिस मंच पर आपको बुलाया गया हैं . उस मंच पर तुलना करने की आवश्यता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना के जाती हैं. छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती. यदि तुलना करनी हैं तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि मेंत तुलना करना न्याय संगत होगा.

श्री वी.के. सिंह ने जो कहाँ उसके लिए उनको दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता हैं, वही कहता हैं.  यह आयोजको का दायितव हैं की वे देखे बुलाये गए व्यक्ति के विचार क्या हैं. यदि भिन्न भी हैं तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट शब्दों में उनकी बातो का उतर दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना सगंठन के लिए लज्जाजनक हैं. इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानंद के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत हैं:

भारतवर्ष में सन्यास संसार को छोड़ने और मोह से छुटने का नाम हैं. स्वामी विवेकानंद न संसार

छोड़ पाए न मोह से छुट पाए  इसलिय वे सारे जीवन घर और घाट की अजीब खीचतान में पड़े रहे . (वही पृष्ठ – २)

अपने किसी प्रियजन का मुत्यु सवांद पाकर सन्यासी विवेकानंद को रोता देखकर किसी ने मंतव्य दिया- ‘सन्यासी के लिए किसी की मुत्यु पर शोक प्रकाशित करना अनुचित हैं.

विवेकानंद ने उतर दिया  ‘यह आप कैसे बाते करते हैं? सन्यासी हूँ इसलिए क्या में अपने ह़दय का विसर्जन दे दूँ .सच्चे सन्यासी का ह़दय तो आप लोगो के मुकाबले और अधिक कोमल होना चाहिए .हजार हो, हम सब आखिर इंसान ही तो हैं.’ अगले ही पल, उनकी अचिंतनिये अग्निवर्षा हुई, ‘ जो सन्यास दिल को पत्थर कर लेने का उपदेश देता हैं, में उस सन्यास को नहीं मानता. (वही पृष्ठ – २)

‘ जो व्यक्ति बिल्कुल सच्चे-सच्चे मन से अपनी माँ की पूजा नहीं कर पाता,वह कभी महान नहीं हो सकता.

इसके लिए स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य  और चैतन्य का उदाहरण दिया. (वही पृष्ठ – ३)

में अति नाकारा संतान हूँ .अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पाया .उन लोगो ने जाने को कहाँ तो बहा कर चला आया. (वही पृष्ठ – ७ )

‘सोने जैसे परिवार का सोना बेटा नरेंदर नाथ लगभग एक ही समय दो-दो प्रबल भंवर में फँस गया था- आध्यात्मिक जगत में विपुल आलोडन दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण से साक्षात्कार .दूसरा भंवर था- पिता विश्वनाथ की आकस्मिक मौत से पारिवारिक विपर्यय .यह एक ऐसी परिस्थिती थी, जब इक्कीस वर्षीय वकालत दा, बड़े बेटे के अलावा कमाने लायक और कोई नहीं था 1’(वही पृष्ठ – २०)

;पिता की मत्यु के साल भार बाद सन १८८५ में मार्च महीने में नरेंदरनाथ ने घर छोड़ देने का फैसला ले लिया था ऐसा हम अंदाजालगा सकते हैं .यह सब व्रतांत पढ़कर आलोचकों ने मोके का फायदा उठाते हुय कहाँ एक टेढ़ा सा सवाल जड़ दिया-स्वामी जी अभाव सन्यासी थें या स्वभाव सन्यासी थें (वही पृष्ठ – २६)

अब घर से उनका कोई खास  सरोकार नहीं रहा .हाँ जब वे कोलकत्ता में होते थें तो कभी-कभार माँ से मिलने चले आते थें .सन १८९७  में यूरोप से लोटने के पहले तक घर में किसी ने उन्हें गेरुआ वस्त्र में नही देखा1 (वही पृष्ठ – ४१)

‘ इस प्रसंग में वेणीशंकर शर्मा ने कहाँ हैं- जो कुछ परिवार से जुड़ा हैं, वह निंदनीय या वर्जनीय हैं,ऐसा उनका  मनोभाव  नही था.मात्रीभक्ति को उन्होंने  सन्यास की वेदी पर बलि नहीं दी, बल्कि हम तो यह देखते हैं की वे माँ के लिय उच्च्कान्क्षा , नेतृत्व ,यश सब कुछ का विसर्जन देने को तेयार थें. (वही पृष्ठ –४५ )

‘वेणीशंकर शर्मा की राय हैं- ऐसा लगता हैं स्वामी जी को अमेरिका भेजने को जो खर्चीला संकल्प महाराज ने ग्रहण किया था, उसमे स्वामी जी की माँ और भाइयो के लिए सों रुपये महीने का खर्च भी शामिल था .महाराज ने सोचा कि स्वामी जी को अपनी माँऔर भाइयो की दुषिन्नता से मुक्त करके  भेजना ही , उनका कर्तव्य हैं (वही पृष्ठ –४६ )

‘खेतड़ी महाराज को पत्र (१७ सितम्बर १८९८) भेजा मुझे रुपयों की जरूरत हैं, मेरे अमेरिकी दोस्तों ने यथासाध्य मेरी मदद की हैं,लेकिन हर वक्तगत फेलाने में लाज आती हैं, खासतोर पर

इस वजह से बीमार होने का मतलब ही हैं-एक मुश्त खर्च . दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान हैं, जिससे मुझे भीख मागंते ममुझे संकोच नहीं होता .और वह इंसान हैं आप .आप दे या न दे, मेरे लिए दोनों बराबर हैं .अगर संभव हो तो मेहरबानी करके , मुझे कुछ रूपये भेज दे (वही पृष्ठ – ५५ )

‘ में क्या चाहता हूँ, उसका विशद विवरण में लिख चुका हूँ .कलकत्ता  में एक छोटा सा घर बनाने पर खर्च आएगा दास हजार रुपये .इतने रुपये से चार-पांच जन के रहने लायक छोटा सा घर किसी तरह ख़रीदा या बनवाया जा सकता हैं .घर खर्च के लिए आपर मेरी माँ को हर महीने जो सों रूपये भेजते हैं, वह उनके लिए पर्याप्त हैं .जब तक में जिन्दा हूँ, अगर आप मेरे चर्च के लिए और सों रुपये भेज सकें, तो मुझेबेहद ख़ुशी होगी .बिमारी की वजह से मेरा खर्च भयंकर बढ़ गया हैं .वैसे यह अतिरिक्त बोझ आपको  जयादा दिनों तक वहन करना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता, क्योकिं में हद से हद और दो-एक वर्ष जिन्दा रहूँगा .में एक और भीख भी मांगता

हूँ-माँ के लिए आप जो हर महीने सों रूपये भेजते हैं, अगर हो सके तो उसे स्थायी रखे.मेरी मौत के बाद यह भी मदद उनके पास पहुचती रहे .अगर किसी कारणवश मेरे प्रति अपने प्यार या दान में विलाप लगाना पड़ें तो एक अकिचन साधु के प्रति कभी प्रेम प्रीति रही हैं,यह बात यद् रखते हुए, महाराज इस साधु की दुखियारी माँ पर करुणा बरसाते रहे 1’ (वही पृष्ठ – ५६ )

‘उन्होंने अपनीयह इच्छा भी बताई कि अब वे अपनी जिन्दगी के बचे-खुचे दिन अपनी माँ के साथ बिताएंगे .उन्होंने कहा- देखा नहीं, इस बार बीच में आपदा हैं- प्रकत वैराग्य ! अगर संभव होता तो में अपने अतीत का खंडन करता, अगर मेरी उम्र दस वर्ष काम होती, तो में विवाह करता .वह भी अपनी माँ को खुश करने के लिए, किसी अन्य कारण से नहीं .उफ़ ! किस बेसुधि में मेने यह कुछ साल गुजार दिये, उचाशा के पागलपन में था’…अगले ही पल वह अपने समर्थन में कह उठे, में कभी उचाभिलाषी नहीं था .खयाति का बोध मुझे पर लाद दिया गया था 1’ ‘निवेदिता ने कहा, खयाति की शुदरता आप में कभी नहीं थी .लेकिन में बेहद खुश हूँ कि आपकी उम्र दस वर्ष कम नहीं हैं ’ (वही पृष्ठ – ५७ )

‘विश्वविजय कर कलकत्ता लोट आने के बाद ( १८९७ )  स्वामी जी का माँ से मिलने जाने का हर द्रश्य भी अंकित हैं 1- पेट्रियट, औरेटर,सेंट कहाँ गुम हो गया वे दोबारा अपनी माँ के गोद के नन्हे से लला बन गए .माँ की गौद में सिर रखकर,असहाय शरारती शिशु की तरह वे रोने लगे-माँ-माँ अपने हाथो से खिलाकर,मुझे इंसान बनाओ.  (वही पृष्ठ – ६१)

‘ अगले सप्ताह  में अपनी माँ को लेकर तीर्थ में जा रहा हूँ .तीर्थ-यात्रा पूरी करने में कई महीने लग जायेंगे .तीर्थ-दर्शन हिन्दू-विधवायो की  अन्तरग साध होती हैं .जीवन भरमेने अपने आत्मीय स्वाजनो  को केवल दुख ही दिया .में उन लोगो की कम से कम एक इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूँ . (वही पृष्ठ – ६४ )

स्वामी त्रिगुणातितानंद ने यह भी जानकारी दी हैं- ‘उनकी दोनों बाहे और हाथ किसी औरत की  बाहों की तुलना में जयादा खुबसूरत थें. (वही पृष्ठ – १४९ )

‘स्वामी जी के घने काले बालो के एइश्वर्य के बारे में उनकी कई- कई तस्वीरों से हमारी धारणा बनती हैं-घुघराले नहीं, लहर-लहर घने बालो का अरन्य .उनके घने काले बालो का एक छोटा-

गुच्छा अचानक ही मिस जोसेफिन मेक्लाइड ने काट लिया था और वे परेशान हो उठे थें .बालो का वह गुच्छा मिस मेक्लाइड अपने जेवर के डब्बे में संजोकर हमेशा अपने पास रखती थी .स्वदेश लौटकर बेलुड मठ में अपना सिर मुंडाते हुए भी स्वामी जी अपने बालो को लेकर खूब-खूब हंसी-ठटा किया था .ऐसे खुबसूरत बालो जो विदेश में भाषण देते हुए माथे पर झूलकर आँखों को ढँक लेते थें, स्वदेश लौटकर उन्होंने काट फेंका .

‘ हम जानते हैं कि बेलुड मठ में वे हर महीने बाल मुंडवा लेते थें .बेलुड मठ में उनके बाल मूडकर नाइ उन्हें समेट  कर फेकने ही जा रहा था की स्वामी जी ने हंसकर मंतव्य किया .अरे देख  क्या रहा हैं ! इसके बाद तो विवेकानंद के गुच्छे भार बालो के लिए, दुनिया में ‘क्लैमर ’ मच जायेगा

नरेंदर के अंग-प्रत्यंग के बारे में  जब ढेंरो तथेय जमा कर रहा  हूँ, तब  यह भी बता दूँ कि उनकी ‘टेम्परिंग फिंगर’ थी, बंगला में महेन्दरनाथ दत ने जिन उंगलियों को ‘चम्पे की कली’ कहाँ हैं, इस किस्म की उंगलिया दुविधाशुन्य निश्येयात्म्क मनसिकता का  संकेत देती हैं .उनके नाख़ून

ईशत रक्ताभ थें औरे नाख़ून का उपरी हिस्सा ईशत  अर्धचंद्राकर संस्कृत में किस्म के दुर्लभ न नाखुनो  को ‘नखमणि’ कहते हैं .

महेन्द्रनाथ अपने बड़े भाई के पदचाप के बारे में भी संकेत दे गये हैं- उनके न कदमो की गति जयादा तेज थी, न जयादा धीमी, मानो गम्भीर चिंतन में निमग्न रहकर विजयाकंषा में अतिद्रंड, ससुनिषित ढंग से, धरती पर कदम रखकर चलते थें 1’

, भाषण देते समय विवेकानंद अपने हाथ की उंगलिया पहले कसकर अचानक फेला देते थें उनके मन  में जैसे-जैसे भाव संचरित होते थें, उंगलियों का संचरण भी तदनुसार होता रहता था . उनके अवयव  के जिस हिस्से कोलेकर देश-विदेश के भक्तो में मतभेद नहीं हैं, वह हैं स्वामी जी की आँखें .जो लोग भी उनके करीब आये,सभी उनकी मोहक राजीवलोचन आँखों के जयगान में मुखर हो उठे. (वही पृष्ठ –१५०)

वेरी लार्ज एण्ड ब्रिलियंट-तमाम अखबारों और विभिन्न संस्मरणों में बार-बार यह घूम-फिरकर आई हैं उनकी आँखों के बारे में अंग्रेजी के और भी दुर्लभ शब्दों का प्रयोग किया हुआ हैं-फ्लोइंग,ग्रेसफुल,ब्राइट, रेडीएंट,फाइन, फुल ऑफ़ फ्लेशिंग लाइट .आलोचकों ने प्रकारांतर से उनकी आँखें पर कीचड उछालने की व्यर्थ कोशिश में अमेरिका में अफवाहे फेलाई अमेरिकी महिलाये उनके आदर्श की और आकृष्टहोकर पतंग की तरह दोडी हुई नहीं आती, वे लोग उनके नयन-कमल की चुम्ब्कीय शक्ति की और खिची चली आती हैं(वही पृष्ठ – १५१ )

इंदौर की घटना हैं .पत्रकार वेदप्रताप वैदिक के पिता श्री जगदीश प्रसाद वैदिक इंदौर के एक विधायक की चर्चा कर रहे थें .वैदिक जी ने विधायक से कहा शंकरसिंह ! तू किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, अपने को आर्यसमाजी कहता हैं . यह अनुचित हैं .विधायक बोला पंडित जी में पाडे आर्यसमाजी हूँ में निराकार ईश्वर को मानता हूँ आर्य समाज के सिद्धान्तो को मानता हूँ, ऋषि दयानन्द में मेरी निष्ट हैं, में उनको अपना गुरु मानता हूँ वैदिक जी विधायक से बोले- शंकर तुम मांस खाते हो, शराब पीते हो, अन्य क्य्सन करते हो, फिर आर्यसमाजी कैसे हो! शंकर बोला मेरी सिद्धान्तो में निष्ठां हैं इसलिए आर्यसमाजी हूँ .खाता- पीता हूँ कह सकते हो, में बिगड़ा हुआ आर्यसमाजी हूँ .स्वामी विवेकानंद  के संस्यास के विषय में कहा जा सकता हैं .तो वे संस्यासी उनकी संस्यास में आस्था हैं, परन्तु व्यव्हार में संस्यास दूर तक भी दिखाई नहीं देता 1

स्वामी विवेकानंद के संस्यासी जीवन को व्यव्हार के धरातल पर देखा जाए तो एक वाक्य में कहा जा सकता हैं- उनका जीवन मछली से प्रारम्भ होता हैं और मछली पर आकर समाप्त हो जाता हैं1

किसी भी व्यक्ति के सन्यासी होने की सर्वमान्य कसोटी हैं .यम-नियमो में आस्था रखना , उनका पालन करना, उनके पलना का उपदेश करना, क्योकि इनके पालन करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन की उन्नति होती हैं और यदि कोई कहता हैं की यम-नियमो का पालन न करके,उनके विपरीत आचरण करके कोई संस्यासी महान बनता हैं तो इस से बड़ी मूर्खता और नहीं हो सकती .यम-नियामी में पांच यम-अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्र्हम्चर्ये और अपरिग्रह तथा पांच नियम- शोच, संतोष, तप, स्वाधायक और ईश्वर प्रणिधान हैं .यह दस संस्यास की आवशयक बाते हैं .यदि कोई इनका निषेध करके  अपने आपको संस्यासी मानता है, तो वह मर्यादा से पतित ही कहा जा सकता हैं संस्यास,योग, समाधी जैसे बातो  में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान हैं,परन्तु विवेकानंद के जीवन में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हैं .जो मनुष्य अपने भोजन और जिहा के स्वाद के लिए  प्राणी- हिंसा का समर्थन करता हो, वह व्यक्ति योग और सन्यास के पथ का पथिक नहीं बन सकता .स्वामी विवेकानंद को मासांहार कितना प्रिय था और वे इसके लिए कितने आग्रही थें .इस बात कोउनके जीवन में आई निम्न घटनाओं को देखकर परिणाम निकाला जा सकता हैं-

“ खाने-पीने के बारे में, बड़े होकर मंझले भाई के नाश्ते की ही बात ले .उन दिनों कलकत्ता की दुकानों में पाडे के मुंड बिका करते थें दोनों भाई नरेंदर और महेंदर ने पाडे वाले से मिलकर पक्का इंतजामकर लिया था .दो चार आने में ही पाडे के दस बारह मुंड जुटा लिए जाते थें दस-बारह सिर और करीब दो-ढाई सेर हरे मटर एक संग उबल कर सालन पकाया जाता था .महेंदर ने लिखा हैं –शाम को में और स्वामी जी ने स्कूल से लोटकर वो सालन और करीब सोलह रोटिया नाश्ते में हजम कर जाते थें1( विवेकानन्द, जीवन के अनजाने सच पृष्ठ १३)

‘ दादा नरेन काफी काम उम्र  में सुघनी लेने लगे थें और उसकी गन्ध मसहरी के अन्दर से आती रहती थी,यह बात उनके मंझले भाई महेंदरनाथ  हमें बता चुके कबूतर उड़ाने का उन्हें खानदानी शोक था. (वही पृष्ठ – १७ )

‘ एक बार वे भाई, दादा और माँ-पिता के साथ रायपुर जा रहे थें .महेंदरनाथ ने जानकारी दी हैं की घोडाताला में मांस पकाया गया .में खाने को राजी नहीं था बड़े भाई ने मेरे मुहमांस का टुकड़ा टूस दिया और मेरी पीठ पर धोल ज़माने लगे- खा, उसके बाद और क्या! शेर के मुह को खून का स्वाद लग गया (वही पृष्ठ –१८ )

“ मास्टर साहेब ने पूछा ‘ तुम्हारी माँ ने कुछ कहाँ ? नरेंदर ने उतर दिया- नहीं .वे खाना खिलाने के लिए उतावली हो उठी .हिरण का मांस था , खा लिया .लेकिन खाने का मन नहीं था. (वही पृष्ठ – २८ )

‘ दत्त लोगो की मेधा के प्रसंग में और एक सरल कथा भी हैं मंझले भाई नरेंदनाथ से निरन्जन महाराज ने एक बार कहा था .नरेन में इतनी बुद्धि क्यों भरी हैं, जानता हैं ? नरेन् बहुत जयादा हुक्का गुडगुडा सकता हैं अरे हुक्का न गुडगुडाया जाए तो क्या बुद्धि अन्दर से बाहर निकल सकती हैं….तुम भी तमाखू पीना सीखो .नरेन  की तरह तुम्हारी बुद्धि भी खुल जाएँगी. (वही पृष्ठ – ४२)

‘ यानि माँ की साडी समस्याओं के समाधान के लिए भरसक कोशिश करते रहे, उनके संसार-वीतरागी जयेष्ट पुत्र ! जाने से पहले माँ की इच्छा और अपना वचन करने के लिए, उन्होंने सिर्फ तीर्थ-यात्रा ही नहीं की बल्कि कालीघाट  में बलि तक दे डाली .उनके निधन के बढ़ भी माँ को कोई तकलीफ ना हो, इसके लिए वे अपने गुरु भाइयो से सदर अनुरोध कर गए थें. (वही पृष्ठ – ७१ )

‘ रसगुल्ला प्रसंग में हेडमास्टर सुधांशु शेखर भट्टाचार्य जी ने एक सीधे-सीधे बल्लेबाजी की थी 1’ सुन, विवेकानंद मिठाई  खाने वाले जीव थें ही नहीं, वे जो तुम सब की आँखों में आंसू आने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा .उस चीज का नाम था – मिर्च (वही पृष्ठ –७६ )

‘ उन्हें खबर मिल चुकी थी की कामिनी-कंचन का परित्याग जरूरी होते हुए भी रामकिशन मठ-मिशन में भोजन  के बारे मों कोई बाधा निषेध नहीं हैं. (वही पृष्ठ –७७)

‘ दुनिया भर में एकमात्र वही ऐसे भारतीय थें, जो सप्त सागर पार करके अमेरिका पहुंच और वहाँ वेदान्त और बिरयानी दोनों का एक साथ प्रचार करने का दुसाहस दिखाया. (वही पृष्ठ –७७ )

‘इसी दोर में नरेंदनाथ का सफलतम अविष्कार था- बतख के अंडे को खूब फेटकर, हरी मटर और आलू डालकर भुनी हुई खिचड़ी .गीली-गीली खिचड़ी के  बजाय यह व्यंजन-विधि कहीं जयादा उपयोगी हैं, यह बात कई सालो बाद जाकर विशेषज्ञो ने स्वीकार की हैं.उनके पिता गीली खिचड़ी और कालिया पकाते थें और उनके सुयोग्य बेटे ने एक कदम और आगे  बढकर और एक  नई डिश के जरिये पूर्व-पश्चिम को एकाएक कर दिया (वही पृष्ठ – ८३)

‘बाद में महेंदरनाथ ने लिखा-में वे सब खाने को कतई तेयार नहीं था .मुझे उबकाई आने लगी .बड़े भैया ने मेरे मुहं में मांस ठूसकर, मुक्के-मुक्के सेमेरी धुनाई की और कहता रहा-खा ! खा ! उसके बाद फिर क्या था ? बाघ को जैसे खून का नया नया स्वाद मिल गया और क्या. (वही पृष्ठ – ८३)

पटला दादा ने कहाँ- ले, तू नोट कर .इंसानों के प्रति प्यार, गर्म चाय, खुशबूदार तम्बाकू और दिमाग ख़राब कर देने वाली मिर्च-इन चार मामलो में विवेकानंद सीमाहीन थें. (वही पृष्ठ – ८६)

‘ एक बार होटल में खाकर जब वे ठाकुर के वहाँ आय तो उन्होंने उनसे कहा, ‘ श्रीमान, आज होटल में, जिसे आम लोग अखाघ कहते हैं,खाकर आया हूँ 1’ठाकुर ने उतर दिया- तुझे कोई दोष-पाप नहीं लगेगा’ (वही पृष्ठ –८७)

अब श्री श्री माँ की जुबानी, नरेन के खाना पकाने का किस्सा सुनें .ठाकुर के लिए कोई रसोई बनाने का जिक्र छिडा था .जब में काशीपुर में ठाकुर के लिए खाना पकाती थी तब ठन्डे पानी में ही मांस चढा देती थी .थोडा सा तेजपत्ता और मसाले डाल देती थी .मांस जब  रुई की तरह सीझ जाता था,तो उतार लेती थी मेरे नरेन् को तरह तरह से मांस पकाना आता था .वह मांस को खूब भुनता था, आलू मसलकर कैसे-कैसे तो पकता था, क्या तो कहते हैं उसे ? शायद किसी तरह का चाप-कटलट होगा . (वही पृष्ठ –८८ )

 

सदाचरण को ही परम धर्म कहाँ हैं

आचार: परमो धर्म: 11

शेष भाग अगले भाग में …..परोपकारी नवम्बर (द्वितीय ) २०१४

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