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आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण :रामनाथ विद्यालंकार

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

ऋषिः वामदेवः। देवता पितरः। छन्दः निवृद्आर्षीगायत्री।

आर्धत्तपितरोगर्भकुमारंपुष्करस्रजम्।यथेहपुरुषोऽसत्॥

-यजु० २। ३३ |

हे ( पितर:१) पालनकता गुरुजनो! आचार्यो ! आप ( पुष्करस्त्रजं कुमारं ) कमल फूलों की माला पहने हुए इस कुमार को ( गर्भम् आधत्त ) गर्भ रूप में धारण करो, ( यथा ) जिससे यह (इह ) यहाँ, गुरुकुल में ( पुरुषः ) विद्वान् पुरुष ( असत्) ही जाए।

वेद के आदेश और अनुभवी शिक्षाविज्ञों के अनुभव के अनुसार राष्ट्र में बालक-बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। एक महान् शिक्षाशास्त्री के वचन हैं—“इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवे। जो न भेजे वह दण्डनीय हो ।” जब बालक या बालिका गुरुकुल, विद्यालय या पाठशाला में विद्या पढ़ने आचार्य या आचार्या के पास जाते हैं, तब आचार्य या आचार्या उनका उपनयन संस्कार करते हैं।

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सृक्त में लिखा है कि ”जब आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार करता है, तब वह उसे अपने गर्भ में धारण करता है।” प्रस्तुत मन्त्र में पितरः’ को सम्बोधन है। ‘पितर:’ को अर्थ पालनकर्ता गुरुजन और आचार्यगण है। माता-पिताअपने बालक को स्वच्छ वस्त्र पहना कर, उसके गले में कमलफूलों की माला डाल कर गुरुकुल में प्रवेशार्थ उपनयन संस्कार के लिए आचार्य के समीप लाये हैं। वे बालक को आचार्यों के हाथों में सौंपते हुए कहते हैं-‘ हे आचार्य आदि गुरुजनो ! कमल-फूलों की माला धारण किये हुए इस कुमार को आप अपने गर्भ में धारण कीजिए।’

गर्भ में धारण करना सामीप्य-सम्बन्ध का प्रतीक है। जैसे गर्भस्थ सन्तान का माता के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होता है, ऐसे ही कुमार बालक या ब्रह्मचारी का आचार्य तथा गुरुजनों के साथ निकट का सम्बन्ध रहना चाहिए। निकटता में रह कर ही गुरुजन विद्यार्थी की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दे सकते हैं, उसके गुण-दोषों को देख सकते हैं तथा गुणों को प्रोत्साहित एवं दोषों को दूर कर सकते हैं। पाठ्यपुस्तकों द्वारा अध्यापन भी निकटता की अपेक्षा रखता है। पाठभूल जाने पर या कोई शङ्का होने पर तुरन्त छात्र गुरुजनों से पूछ सकता है। गुरुजन छात्र को अपने पास रख कर उसकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति पर भी ध्यान दे सकते हैं । गर्भ में धारण करने का लाभ क्या होगा इस विषय में मन्त्र कह रहा है कि यह अशिक्षित कुमार गुरु-सान्निध्य में शिक्षित होकर सत्पुरुष तथा उत्तम नागरिक बन जायेगा।

इस मन्त्र के भावार्थ में भाष्यकार” लिखते हैं—” विद्वानों और विदुषियों को चाहिए कि विद्यार्थी कुमारों और विद्यार्थिनी कुमारियों को विद्या देने के लिए गर्भ के समान धारण करें । जैसे गर्भ में देह क्रम-क्रम से बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि सुशिक्षा से ही ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी की सविद्या में वृद्धि करें तथा उनका पालन करें, जिससे वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थ युक्त होकर सदैव सुखी हों।”

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितरः) ये पान्ति विद्यान्नादिदानेन, तत्सम्बुद्धौ–द०भा०।

२. विद्याग्रहणार्था स्रग् धारिता येन तम् कुमारं ब्रह्मचारिणम्-द०भा० ।

३. असत् भवेत्-अस भुवि, अदादिः, लेट् लकार।

४. स्वामी दयानन्द सरस्वती ।

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ    -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः सरस्वती च। छन्दः भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभूगिन्यै स्वाहा ।।।

-यजु० २ । २० |

हे ( अदब्धायो ) मनुष्य को अहिंसित, अक्षत रखने वाले, (अशीतम ) सर्वव्यापक (अग्ने ) अग्ननायक जगदीश्वर! आप हमें ( पाहि ) बचाओ ( दिद्यो:) वज्र से, ( पाहि ) बचाओ (प्रसियै ) जाल से, ( पाहि ) बचाओ ( दुरिष्ट्यै ) दुर्यज्ञ से, ( पाहि) बचाओ (दुरद्मन्यै ) दुर्भोजन से, ( अविषं ) विषरहित (नः पितुं कृणु ) हमारे भोजन को करो। हे सरस्वती ! तू हमारे ( योनौ ) घर में ( सुषदा ) सुस्थित हो। ( स्वाहा ) एतदर्थ हम प्रार्थना करते हैं, ( वाड्) पुरुषार्थ करते हैं । ( संवेशपतये अग्नये स्वाहा ) समाधि के रक्षक आप जगदीश्वर का हम स्वागत करते हैं। ( यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा ) यश का भागी बनाने वाली सरस्वती का हम स्वागत करते हैं।

जगदीश्वर इस जड़-चेतन जगत् की रचना करता है और वही इसकी रक्षा भी करता है। मनुष्य भी यद्यपि सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, तो भी वह उसकी रक्षा के बिना रक्षित नहीं रह सकता। सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अपनी हिंसा को निमन्त्रण देता रहता है। यदि उसे चेतानेवाला उसका संरक्षक परमेश्वर न हो तो वह शत वर्ष क्या, कुछ वर्ष भी जीवित नहीं रह सकता । परमेश्वर की सर्वव्यापकता का ध्यान भी मनुष्य को ऐसे कुकर्मों को करने से रोकता है, जिनसे उसकी हिंसा या क्षति होती हो। शत्रु का वज्र या उसके संहारक अस्त्र-शस्त्र भी मनुष्य को मृत्यु के घाट उतारने के लिए पर्याप्त हैं।

हे जगदीश! आप ही उसे शत्रु से लोहा लेकर उस पर विजय पाने का महाबल प्रदान कर सकते हो। काम, क्रोध आदि आन्तरिक षड् रिपु भी अपना जाल फैला कर संसार सागर में तैरते हुए मनुष्य को ऐसे ही फँसाने के लिए तत्पर हैं, जैसे मछुआरा मछलियों को अपने जाल में फँसाता है।

हे प्रभु, आप ही उसे उस जाल के प्रलोभन से दूर रहने की प्रेरणा कर सकते हो। मानव कुसङ्गति में पड़ कर दुर्भोजन भी करने लगता है। उसका स्वाभाविक भोजन तो फल, कन्दमूल, दूध, नवनीत, अन्न, रस, बादाम, किशमिश, छुहारा आदि ही हैं, किन्तु वह अण्डे, मांस, मदिरा आदि का भी सेवन करने लगता है। वह जिह्वा के स्वाद के वश होकर विषैले खाद्य और पये को भी अपने दैनिक भोजन का अङ्ग बना लेता है। उसे इसका परिज्ञान ही नहीं होता कि व्यापारिक कम्पनियाँ धन कमाने के लिए उसके आगे खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, स्वादिष्ठ विषैले खाद्य और पेयों को परोस रही हैं। उसे तो स्वाद का आकर्षण होता है ।

हे महेश्वर ! आप ही किसी साधु बाबा को भेज कर मनुष्य को यह शिक्षा दिलाते हो कि वह इन विषैली वस्तुओं का बहिष्कार करे। आप हमें यह सीख दो और बल दो कि हम शत्रु के वज्र को निर्वीर्य करने का सामर्थ्य जुटायें, आन्तरिक रिपुओं के जाल में न फैंसने की दूर-दर्शिता प्राप्त करें और दुर्भोजन का विषपान न करें। हे परमात्मन्! मनुष्य जब योगाभ्यास में तत्पर होता है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की क्रियाओं को करता हुआ समाधि तक पहुँचता है, तब उसकी उस समाधि के रक्षक भी आप ही होते हो। इस योगैश्वर्य के दाता के रूप में भी हम आपका स्वागत करते हैं।

हे अग्निसम तेजस्वी देवाधिदेव ! जैसे हम आपका स्वागत कर रहे हैं, वैसे ही आपकी दी हुई सरस्वती अर्थात् वेदविद्या का भी स्वागत करते हैं, उसका अध्ययन-अध्यापन करते हैं। और उसके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ करते हैं। हमारे घरों में वह सरस्वती सदा ‘सुषदा’ रहे, सुस्थिर रहे। हे वेदविद्यारूप सरस्वती ! तू ‘यशोभगिनी’ है, हमें यश का भागी बनाने वाली है। तेरा स्वागत है।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

पदटिप्पणियाँ

१. अदब्धो ऽ नुपहंसितः आयुर्मनुष्यो यजमानो यस्य सो ऽ दब्धायु: म० । आयु=मनुष्य, निघं० २.३।

२. अशू व्याप्तौ । अश्नुते व्याप्नोति इत्यशी, अतिशयेन अशी अशीतमः, दीर्घश्छान्दस:-म० ।

३. दिद्युत्=वज्र, निघं० २.२०, तकारलोप । अथवा दिवु मर्दने चुरादिः । देवयति मृनाति अनेन इति दिद्युः वज्रः । दिव धातो: बाहुलकाद् उणादिः कुः प्रत्ययः, द्वित्वं च ।

४. प्रसितिः प्रसयनात् तन्तुर्वा जालं वा । निरु० ६.१२।।

५. अदनम् अद्मनी, दुष्टा अद्मनी दुरद्मनी दुर्भोजनम्-म० ।।

६. पितु=अन्न, निघं० २.७।।

७. योनि=गृह, निघं० ३.४

८. (वाड्) क्रियार्थे–२०भा० ।

९. संवेश–निद्रा, योगक्षेत्र में समाधि।

१०.यशांसि भजितुं शीलं यस्याः तस्यै–द०भा० ।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निवायू यज्ञश्च । छन्दः भुरिक् पङिः।

घृताची स्थो धुर्यों पात सुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम्। यज्ञ नमश्च तऽउप च यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व स्विष्टे मे सन्तिष्ठस्व।

-यजु० २ । १९

हे अग्नि और वायु ! तुम (घृताची ) घृत आदि हवि को फैलाने वाले और मेघ-जल को भूमि पर लाने वाले, तथा ( धुर्यों ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के धुरे को वहन करने वाले (स्थः ) हो, ( पातं ) मेरी रक्षा करो। तुम (सुम्ने स्थः ) सुखदायक हो, ( सुम्ने मा धत्तम् ) सुख में मुझे रखो। ( यज्ञ ) हे सब जनों के पूजनीय परमेश्वर । ( नमः च ते ) आपको नमस्कार है। आप ( यज्ञस्य शिवे ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के मङ्गलप्रद सुख प्राप्त कराने हेतु ( उप सं तिष्ठस्व ) सामीप्य के साथ संनद्ध हों, (मे स्विष्टे ) मेरे यज्ञ का सुफल प्राप्त कराने हेतु ( सं तिष्ठस्व) संनद्ध हों।

मन्त्र के देवता अग्नि-वायु और यज्ञ हैं। अग्नि से पार्थिव अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों ग्राह्य हैं। यज्ञ से होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ दोनों अभीष्ट हैं। होमयज्ञ में यज्ञाग्नि और वायु घृत आदि हव्य द्रव्य को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य करते हैं। वे हविर्द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को अन्तरिक्षस्थ मेघजल तक भी ले जाते हैं, जिससे जल उन परमाणुओं से भरपूर तथा सुगन्धित हो जाता है। अग्नि-वायु मेघस्थ जल को बरसाने का काम भी करते हैं। इस वृष्टि में यज्ञाग्नि, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्य तीनों अग्नियाँ कारण बनती हैं। सुगन्धित जल बरस कर वनस्पतियों और प्राणियों को प्राप्त होता है तथा रोगों को नष्ट करता एवं प्राण प्रदान करता है और सुख देता है। इस प्रकार अग्नि और वायु होमयज्ञ के धुर्य (धुरे को वहन करने वाले) होते हैं। तीनों अग्नियाँ और वायु शिल्पयज्ञ के भी धूर्वह या साधक बनते हैं। ये भूमियानों, जलयानों और विमानों को तथा विविध यन्त्रों एवं कल-कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं और मनुष्यों को सुख देते हैं।

मन्त्र के उत्तरार्ध में ‘यज्ञ’ सम्बोधन पूजनीय परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे नमस्कार करके उससे प्रार्थना की गयी है कि आप होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ का मङ्गलप्रद सुखदायक फल हमें प्राप्त कराते रहें, क्योंकि अग्नि-वायु भी ईश्वरीय नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।

उवट एवं महीधर ने यज्ञ के शिव में संस्थित होने का आशय लिया है यज्ञ को न्यून या अधिक न होने देना और उसके लिए श्रुतिप्रमाण भी प्रस्तुत किया है।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

 

पाद टिप्पणियाँ

१. घृतम् आज्यम् उदकं च अञ्चयत: स्थानान्तरं प्रापयत: इति घृताच्यौ। घृताची+औ, पूर्वसवर्णदीर्घघृताची। अञ्चु गतिपूजनयोः, भ्वादिः ।

२. सुम्नम्-सुखम्, निघं० ३.६।।

३. इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ: ईश्वर:-द०भा० ।

४. यज्ञस्य शिवे संतिष्ठस्व अन्यूनातिरिक्तं यज्ञं कुर्वित्यर्थः ।। ‘यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवं, तेन तदुभयं शमयति’ इति श्रुतेः म० ।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों -रामनाथ विद्यालंकार

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् ब्राह्मी पङ्किः।

मीदमिन्द्रऽइन्द्रियं दधात्वस्मान् रायो मघवानः सचन्ताम्। अस्माक सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिषऽउपहूता पृथिवी मातोप मां पृथिवी माता हृयतामग्निराग्नीध्रात् स्वाहा ॥

– यजु० २ । १० |

( मयि ) मुझमें ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर ( इदम् इन्द्रियम् ) इस इन्द्रिय-बल को ( दधातु ) स्थापित करे। ( अस्मान् ) हमें, हमारे राष्ट्र को ( रायः ) आध्यात्मिक धने तथा सुवर्ण, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन और (मघवानः ) आध्यात्मिक एवं भौतिक धनों के धनी जन ( सचन्ताम् ) प्राप्त हों। ( अस्माकं ) हमारी ( सन्तु) हों (आशिषः ) उच्च आकांक्षाएँ। ( सत्याः सन्तु ) सत्य हों (नः आशिषः ) हमारी आकांक्षाएँ और हमारे आशीर्वाद। मेरे द्वारा ( उपहूता ) पुकारी जा रही है (पृथिवीमाता) भूमि माता, ( माम् ) मुझे ( पृथिवी माता ) भूमि माता ( उप ह्वयताम् ) अपने समीप पुकारे । ( अग्निः ) यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि ( आग्नीध्रात् ) अन्तरिक्ष से (स्वाहा ) भूमि पर जल की आहुति दे, अर्थात् वर्षा करे।

प्रत्येक मनुष्य जीवन में उन्नति करने के लिए कुछ आकांक्षाएँ अपने अन्दर संजोता है। हमारी भी कुछ आकांक्षाएँ हैं। प्रथम आकांक्षा यह है कि जगदीश्वर हमारे अन्दर इन्द्रिय बल को स्थापित करे। बलविहीन इन्द्रियाँ अकिंचित्कर होती हैं । हम प्रतिदिन प्रात: सायं अपनी दैनिक सन्ध्या में अङ्गस्पर्श के मन्त्रों द्वारा इन्द्रिय-बल की प्रार्थना करते हैं-हमारे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि अङ्गों को बल और यश प्राप्त हो ।

इन्द्रियों में बल नहीं होगा, तो यश प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रार्थना में मन-रूप अन्तरिन्द्रिय को भी सम्मिलित समझना चाहिए। हमारे मन को भी बल और यश प्राप्त होना चाहिए। मनोबल के बली लोगों ने बहुत यश प्राप्त किया है। मनोबल से ही उपनिषद् के ऋषि महिदास ऐतरेय ने अपने जीवन को यज्ञरूप में चला कर ११६ वर्ष की आयु पाने का यश अर्जित किया था। हमारी ये सब इन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियोंसहित जरामरणपर्यन्त अपनी-अपनी शक्ति से समन्वित रहें, तो हम जराजीर्ण कभी नहीं होंगे। | हमारी दूसरी आकांक्षा यह है कि हमें, हमारे समाज को और हमारे राष्ट्र को विद्या, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, न्याय, धर्मात्मता, भूतदया आदि आध्यात्मिक धन तथा सुवर्ण, हीरे, मोती, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन प्रचुर रूप में प्राप्त हो तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक धन के धनी धर्मनिष्ठ जन भी प्राप्त हों। आध्यात्मिक धन के धनी योगी महात्मा जन लोक में आध्यात्मिकता का प्रवाह चलाते हैं और भौतिक धन के धनी लोग विविध शुभ कार्यों में अपनी सम्पत्ति को लगा कर लोककल्याण करते हैं।

हम यह भी चाहते हैं कि हमारी आकांक्षाएँ उच्च हों और वे सत्य सिद्ध हों। यों ही शेखचिल्ली की तरह हम आकांक्षाओं के पुल न बाँधते रहें, प्रत्युत प्रयास करके उन्हें पूर्ण भी करें। ‘आशिष:’ का अर्थ आशीर्वाद भी होता है। हमारे आशीर्वाद भी सत्य सिद्ध हों। वे पापी को पुण्यात्मा बना सकें। हम पृथिवी माता को पुकारते हैं, पृथिवी माता हमें पुकारे, दुलराये, अपनी खानों में से उत्तमोत्तम वस्तुएँ निकाल कर हमें दे। पृथिवी माता को पुकारने का आशय यह है कि हम पृथिवी से लाभ प्राप्त करने का अधिक से अधिक प्रयास करें। खेती करके हम पृथिवी से अन्न, फल आदि प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी से सोना, चाँदी, लोहा, तांवा, अभ्रक, कोयला, गन्धक आदि खनिज प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी में से तेल और तेल द्रव्य निकाल सकते हैं। हम पृथिवी को पुकारेंगे अर्थात् पृथिवी को दुहने का पूर्ण प्रयास करेंगे, तभी पृथिवी भी हमें अपने अन्दर विद्यमान वस्तुएँ लेने के लिए पुकारेगी। परन्तु पृथिवी हमें तभी पुकार सकती है, अर्थात् अभीष्ट पदार्थ दे सकती है, जब यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि द्वारा अन्तरिक्ष से पृथिवी पर प्रचुर वृष्टि होती रहे, पृथिवीरूप यज्ञवेदि में वृष्टिधाराओं की आहुति पड़ती रहे। इसीलिए मन्त्र के अन्त में कहा गया है कि अग्नि (यज्ञाग्नि तथा सूर्याग्नि) अन्तरिक्ष से पृथिवी पर स्वाहापूर्वक वृष्टि की आहुति देता रहे।

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

पाद-टिप्पणियाँ

१. षच समवाये, भ्वादिः ।।

२. अन्तरिक्षं वा आग्नीध्रम्। -श० ९.२.३.१५

 

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राक्षस प्रकम्पित हों, अराति प्रकम्पित हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता:  यज्ञः । छन्दः स्वराड् जगती ।

शर्मास्यवधूतरक्षोऽवधूताऽअरितयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु। अद्रिरसि वानस्प॒त्यो ग्रावसि पृथुबुध्नुः प्रति॒  त्वादित्यस्त्वग्वेत्तु ॥

-यजु० १ । १४

हे नायक!

तू राष्ट्र का (शर्म असि) शरणरूप और सुखदाता है। ऐसा प्रयत्न कर कि (रक्षः) राक्षस (अवधूतं) प्रकम्पित हो उठे, (अरातयः) शत्रु (अवधूताः) प्रकम्पित हो जाएँ। हे सेना ! तू (अदित्याः) राष्ट्रभूमि की (त्वक् असि) त्वचा है, (अदितिः) राष्ट्रभूमि (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने । हे नायक! तू (अद्रिः असि) पहाड़ है, बादल है, वज्र है, (वानस्पत्यः) ईंधन है, (ग्रावा असि) पाषाण है, (पृथुबुध्नः) विशाल मस्तिष्क वाला है। (अदित्याः त्वक्) राष्ट्रभूमि की त्वचारूप सेना (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने।।

हे राजन् !

हमने आपको अपना नेता चुना है, राष्ट्र का नायक बनाया है, क्योंकि आप प्रजा को शरण और सुख देने में समर्थ हैं। जब तक आपके प्रतिद्वन्द्वी राक्षसजन और शत्रु हैं, तब्र तक राष्ट्र सुखी नहीं हो सकता । निर्दय, हत्यारे, कुटिल, स्वार्थी लोग राक्षस कहलाते हैं, जिनसे सज्जनों की अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जो एकान्त पाकर घात करते हैं या रात्रि में अपनी गतिविधि करते हैं । शत्रु वे हैं जो आपको पद्दलित करके आपका राज्य हथियाना चाहते हैं। वे शत्रु कुछ व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक बड़ा सङ्गठन या शत्रु-राष्ट्र भी हो सकता है। आप उन आततायी, आतङ्कवादी राक्षसों और शत्रुओं लोगों के भी वश के नहीं होते ।

उत्साह का सञ्चय करके ही हनुमान् सीता की खोज में समुद्र पार करके लङ्का पहुँच गये थे और लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए गन्धमादन पर्वत से संजीवनी बूटी ले आये थे। तू देवयज्ञ की अग्नि को भी अपने अन्दर धारण कर। परमात्मदेव की पूजा की अग्नि, विद्वानों के सेवा-सत्कार की अग्नि और अग्निहोत्र की अग्नि ही देवयज्ञ की अग्नि है। तू चिन्ताग्नि को विदा करके उसके स्थान पर परमेश्वर का चिन्तन कर, विद्वजनों के सत्कार का अतिथियज्ञ रचा और सायं-प्रात: अग्निहोत्र करके वायुमण्डल को शुद्ध और सुगन्धित कर।।

हे मेरे मन!

तू मेरे आत्मा के साथ ध्रुव रूप में रहनेवाला महारथी है, तू मेरा ध्रुव तारा है। मैं तुझे अपने आत्मा के सहायक महामन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ। तू ‘ब्रह्मवनि’ हो, ब्रह्म के चिन्तन में सहायक बन, ब्रह्म के कीर्तन में सहायक बन, ब्रह्मबल के अर्जित करने में साधन बन, ब्राह्मण का कार्य करने में साधन बन । तू ‘ क्षत्रवनि’ हो, क्षात्रधर्म का पालन करने में सहायक हो, दीन-दु:खियों की रक्षा करने में साधन बन । तू ‘सजातवनि’ हो, शरीर में तेरे साथ आयी हुई जो ज्ञानेन्द्रियाँ चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका और त्वचा हैं, उनसे प्राप्त होने वाले ज्ञानों की प्राप्ति में साधन बन, क्योंकि तेरा सहयोग यदि नहीं है तो मनुष्य आँखों से देखता हुआ भी नहीं देखता, कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता, जिह्वा से चखता हुआ भी स्वाद नहीं पहचानता, नासिका से सूंघता हुआ भी गन्ध अनुभव नहीं करता, त्वचा से स्पर्श करता हुआ भी कोमल-कठोर को नहीं जानता।

हे मेरे मन!

मैं तुझे शत्रु के वध के लिए प्रतिष्ठित करता हूँ। पहले तो जो आन्तरिक षड् रिपु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इनके विनाश में तुझे आत्मा का सहयोगी बनना है। दूसरे हैं बाह्य शत्रु, जो मेरी उन्नति में बाधक बनते हैं। उनका संहार करने के लिए या उन्हें मित्र बनाने के लिए भी मनोबल की आवश्यकता है।

हे मेरे आत्मन् !

हे मेरे मन! तुम यदि मिल कर उद्यम करो, तो बड़े से बड़ा अन्तः साम्राज्य और बाह्य साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, बड़े से बड़ा अन्तः-शत्रु और बाह्य शत्रु पराजित हो सकता है।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ञि) धृषा प्रागल्भ्ये, स्वादिः, क्तिन् ।

२. आमान् अपक्वान् अत्ति तम्-द०भा० ।

३. क्रव्यं पक्वमांसम् अत्ति तस्मान्निर्गतः तम्-द०भा० |

४. षिधु गत्याम्, भ्वादिः । ‘सेधति’ गत्यर्थक, निघं० २.१४।।

५. ब्रह्म वनति संभजते तत्। वन शब्दे संभक्तौ च, भ्वादिः ।

६. भ्रातृ-व्यन् प्रत्यय शत्रु अर्थ में । व्यन् सपत्ने, पा० ४.१.१४५ ।।

७. चिता चिन्ता द्वयोर्मध्ये चिन्ता चैव गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिन्ता चैव सजीवकम् ।।

८. ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।। —ऋ० ६.९.५

 

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

अग्निहोत्र -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निहोत्र

ज्योति से ज्योति मिले

-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः । छन्दः जगती ।

अग्ने वेर्होत्रं बेर्दूत्युमर्वतां त्वां द्यावापृथिवीऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्य॒ऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिष ज्योर्तिः॥

-यजु० २।९

( अग्ने ) हे विद्वन् ! तू ( वेः ) जानता है ( होत्रं ) अग्निहोत्र को, ( वेः ) जानता है ( दूत्यं ) अग्नि के दूतकर्म को। ( अवतां ) रक्षित करें ( त्वां ) तुझे ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माता। (अव) रक्षित कर ( त्वं ) तू ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माताओं को। (इन्द्रः ) ऐश्वर्यशाली यजमान ( आज्येन ) घृत से, तथा ( हविषा ) हवि से ( देवेभ्यः ) विद्वानों के लिए ( स्विष्टकृत् ) उत्तम यज्ञ का कर्ता तथा उत्कृष्ट अभीष्ट का साधक (भूत्) हुआ है, ( स्वाहा ) हम भी स्वाहापूर्वक यज्ञ करें। ( सं ) मिले ( ज्योतिषा) ज्योति के साथ ( ज्योतिः ) ज्योति।

हे अग्ने ! हे अग्रनायक विद्वन्!

आप अग्निहोत्र को जानते हो। कितना और कैसा घृत हो, अन्य कौन-कौन सा हविर्द्रव्य हो, घृत तथा अन्य हव्यों की कितनी मात्रा में आहुति दी जाए, किस ऋतु में कौन-सी हवन-सामग्री हो, समिधाएँ किन वृक्षों की हों, कब विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाए, उनमें कितना आर्थिक व्यय हो, पुरोहित किसे बनाया जाए, दक्षिणा कितनी दी जाए इत्यादि यज्ञ-सम्बन्धी सब बातें आपको विदित हैं।

आप यज्ञाग्नि के दूत-कर्म के भी ज्ञाता हो। अग्नि को वेदों में देवों का दूत इस कारण कहा गया है कि वह यज्ञकर्ता और विद्वज्जनरूप देवों के बीच दूत-कर्म करता है। जब कोई किसी कार्य को सीधा स्वयं न करके उसे कार्य के लिए किसी को माध्यम बनाता है, तब उसे माध्यम बनने वाले को दूत और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य को दूत कर्म कहा जाता है।

यज्ञकर्ता घृत तथा अन्य हव्यों की रोगहर स्वास्थ्यप्रद सुगन्ध को स्वयं विद्वज्जनरूप देवों के पास न पहुँचा कर अग्नि को माध्यम बनाता है। वह अग्नि में हवि का प्रक्षेप करता है और अग्नि उस हव्य को सूक्ष्म करके उसकी सुगन्ध वायु की। सहायता से विद्वज्जनों के पास पहुँचाता है, इसलिए यज्ञाग्नि दूत है।

हे विद्वन् !

अग्नि के इस दूतकर्म को भी आप जानते हो, अर्थात् अग्नि हविर्द्रव्यों को ग्रहण करके कैसे उनकी सुगन्ध चारों और फैलाता है तथा कैसे परोपकार करता है, इस यज्ञविद्या को भी आप जानते हो। राष्ट्र के द्यावापृथिवी अर्थात् पिता-माताओं या पुरुषों और नारियों का कर्तव्य है कि वे आपको पुरोहित का आदर देकर गौरव प्रदान करें और आपका कर्तव्य है कि आप उनका यज्ञ करा कर यज्ञ से उनका स्वास्थ्य-वर्धन करके उनकी रक्षा करें। यजमान द्वारा यज्ञ में आज्य (घृत) और सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिकारक एवं रोगहर हव्यों की आहुति दी जाती है।

यजमान को ऐश्वर्यवान् होने के कारण इन्द्र भी कहते हैं । उसे यजमानरूप इन्द्र के लिए कहा गया है कि वह घृत तथा अन्य हवियों की यज्ञ में आहुति देकर देवजनों के लिए स्विष्टकृत्’ हो गया है। स्विष्टकृत्’ का अर्थ है साधु प्रकार से यज्ञ को अथवा अभीष्ट को सिद्ध करने वाला। यजमान यज्ञ को भी सिद्ध करता है और जिस अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए यज्ञ किया जाता है, उसे भी सिद्ध करता है। ‘इष्ट’ शब्द यज धातु तथा इच्छार्थक ‘इष्’ धातु दोनों से ही क्त प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। हम सबको भी कर्तव्य है कि हम ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके यज्ञाग्नि में आहुति दें। उसका अन्य फलों के साथ एक फल यह भी होगा कि ‘ज्योति से ज्योति मिलेगी’। हम यज्ञाग्नि की ज्योति से परमात्माग्नि की बृहत् ज्योति का अनुमान करके परमात्माग्नि की ज्योति में ध्यान केन्द्रित करेंगे।

इस प्रकार हमारे आत्मा की ज्योति का परमात्मा की ज्योति से सम्पर्क होगा और हमारी आत्मज्योति उस विशाल ज्योति से ज्योति पाकर और भी अधिक ज्योतिर्मय हो उठेगी। आओ, ज्योति से ज्योति मिलाने के लिए हम यज्ञ करें ।

अग्निहोत्र

पाद-टिप्पणियाँ

१. वेः=अवेः । विद ज्ञाने, लङ् सिप्, अडागम नहीं हुआ।

२. दूतस्य कर्म दूत्यम्, ‘दूतस्य भागकर्मणी’ पा०, ४.४.१२१ से कर्म

अर्थ में यत् प्रत्यय । ।

३. द्यौष्पितः पृथिवि मातः। –ऋ० ६.५१.५

४. इन्द्रो वै यजमानः। -श० २.१.२.११

५. भूत्=अभूत् । भू सत्तायाम्, लुङ्। ‘बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि’ पा०६.४.७५ से अट् का आगम नहीं हुआ।

६. अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः । –अ० ४.३९.९

अग्निहोत्र

मन की दृढ़ता -रामनाथ विद्यालंकार

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

तू कुटिल है, हवियों का निधन है

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता विष्णुः । छन्दः निवृत् त्रिष्टुप् । अहृतमसि हविर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायार्पहतरक्षो यच्छन्तां पञ्च॥

-यजु० १।९ |

हे मेरे मन! तू (अहुतम् असि) कुटिलतारहित है, (हविर्धानम्) हवियों का निधान है, (दूंहस्व) तू स्वयं को दृढ़ कर, (मा ह्वाः) भविष्य में भी कभी कुटिल मत हो। (मा ते यज्ञपतिः ह्वार्षीत्) न ही तेरा यज्ञपति आत्मा कुटिल होवे । (विष्णुः) विष्णु परमेश्वर (त्वा क्रमताम्”) तुझे अग्रगामी करे। (वाताय) गति के लिए तू (उरु) विशाल हो। तुझसे (रक्षः) राक्षसवृत्ति (अपहतं) नष्ट हो जाए। (पञ्) अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँचों व्रत, तुझे (यच्छन्ताम्) नियन्त्रण में रखें।

यदि मन कुटिल है तो मनुष्य कुटिलता के कार्यों में लगेगा और यदि मन पवित्र है तो उसके कार्य भी पवित्र होंगे। जिसने साधना द्वारा मन को पवित्र बना लिया है, ऐसा मनुष्य मन्त्र में मन को सम्बोधन कर रहा है।

हे मेरे मन! तू कुटिलता से रहित हो गया है। तू हविर्धान है, हवियों का निधान है। देह में चक्षु, श्रोत्र आदि जो भी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे सब अपने दृष्ट, श्रुत आदि हव्य की आहुति पहले मन में देती हैं, तभी मनुष्य का आत्मा देखना, सुनना आदि व्यापारों को करता है। यदि मन देखने, सुनने आदि में समाहित नहीं है, या यों कहें कि आँख से देखे, कान से सुने, जिह्वा से चखे द्रव्य की हवि यदि मन में नहीं पड़ रही है, तो आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। अतएव मन को हविर्धान कहा गया है।

हे मेरे मन ! तू सदा दृढ़ बना रह। यदि तू ही दृढ़ता को त्याग कर विचलित होने लगेगा, तो सब इन्द्रियाँ भी विचलित हो जायेंगी । तू दृढ़ रह कर वैसे ही इन्द्रियों को साधे रह सकता है, जैसे उत्तम सारथि रथ के घोडों को साधे रहता है। हे मेरे मन ! जैसे तू इस समय । अकुटिल एवं पवित्र है, वैसे ही भविष्य में भी बने रहना। ऐसा न हो कि मेरी अब तक की सब साधना व्यर्थ हो जाए

और तू कुछ ही दिन अकुटिल रह कर कुटिल मनुष्यों के कुटिल विचारों की सङ्गत से फिर कुटिलता पर चल पड़े। यदि तू सदा अकुटिल बना रहेगा, तो मेरे यज्ञपति आत्मा के पास भी कालुष्य और कुटिलता फटकने नहीं पायेगी तथा मेरा

आत्मा सदा पवित्र ज्ञान और पवित्र कर्मों से ही युक्त रहेगा। है मेरे मन! सर्वान्तर्यामी विष्णु प्रभु, जो तेरे अन्दर भी व्याप्त हैं, तुझे सदा अग्रगामी बनाये रखें और उनसे प्रेरित होकर तू सदा मेरे जीवन को उन्नति की दिशा में ही अग्रसर करता रह।

हे मेरे मन ! मुझे वेद ने ‘दूरंगम’ अर्थात् दूर-दूर तक जानेवाला या दूरदर्शी कहा है। तू विशाल गति करता रह, ऊँची उड़ानें लेता रह, मुझे ऊध्र्वारोहण के लिए प्रेरित करता रह। तू ऐसा उद्योग कर कि यदि कोई राक्षसी वृत्तियाँ मेरे पास आने लगें, तो वे तुझसे टकरा कर चूर-चूर हो जाएँ। तू अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों व्रतों को धारण किये रख। इनके नियन्त्रण में रह कर तू मेरे जीवन को सदा पवित्र ही पवित्र बनाती चल ।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. हृ कौटिल्ये-क्त प्रत्यय। ‘हु ह्वरेश्छन्दसि’ से धातु को हु आदेश।

२. दृहि वृद्धौ, भ्वादिः ।।

३. हृ कौटिल्ये, लुङ्, अडागमाभावे।

४. क्रमु पादविक्षेपे, भ्वादिः ।

५. वात सुखसेवनयोः गतौ च, चुरादिः ।

६. (यच्छन्ताम्) निगृह्वन्तु-द०भा० | यम उपरमे, धातु को यच्छ आदेश।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार