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दंगल की दयनीय सोच… -शिवदेव आर्य

दंगल की दयनीय सोच…

-शिवदेव आर्य

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

मो.—8810005096

वर्तमान के दृश्य को दृष्टि में अवतरित कर दूसरों को दृश्याकाररूप देना वर्तमान में बहुत कठिन हो गया है। आज युवाओं की पहली पसंद सिनेमाजगत् है। सच्चे गुरु व मार्गदर्शक तो सिनेमा घर ही बनते जा रहे हैं। इसकी छाप छोटे से लेकर अबालवृध्दों पर   दिखायी देती है। यत्र-कुत्र सर्वत्र ही सिनेमा की चर्चायें विस्तृत हो रही हैं। सिनेमा का मुख्य उद्देश्य सूचना का सम्प्रेषण तथा मनोरंजन है किन्तु इसका उद्देश्य किसी दूसरी ही  दिशा को दिग्दर्शित कर रहा है। आज के सिनेमा ने समाज-सच को सकारात्मक पक्ष में प्रस्तुत न कर उसके विकृत पक्ष को उजागर किया है। सामाजिक सरोकारों और समस्याओं के उपचारों से उसका दूर-दूर तक लेना-देना दिखायी नहीं देता। उनमें समस्याओं का जो समाधान दिखाया जाता है, उसने दर्शकों के मन में समाधान की स्थिति को भ्रमित करके उसे उलझाया है। फिल्मों का समाधान जिस ‘सुपरमैन’ में निहित है, उसका अस्तित्व ही संदिग्ध है। इस प्रकार समस्या सच होती है और उसका समाधान मिथ्या। फलस्वरूप फिल्में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने की बजाय नकारात्मक भूमिका निभाने लगती है।

सिनेमा के माध्यम से अपना प्रचार-प्रसार तथा अपनी इच्छानुसार युवाओं तथा जनमानस को दिशा व दशा देकर दिग्भ्रमित करने का कार्य बहुत ही तीव्रता के साथ किया जा रहा है। प्रत्येक घर-परिवार में ऐसी स्थिति बनती चली जा रही है कि हर कोई कहने लगा है कि ये सिनेमाजगत्, मोबाईल आदि ने तो हमारे बच्चों को हमसे दूर कर ही दिया है और साथ-साथ हमारे आदर्शों को सदा के लिए ही भुला दिया है। वर्तमान में आने वाले चलचित्र (फिल्में) इसी कार्य को तीव्रता देने का असहनीय  कृत्य कर रही हैं।

अभी २३ दिसम्बर २॰१६ को आमिर खान की नई फिल्म दंगल आयी, जिसकी देश में बहुत जोरों से प्रशंसा व सराहना हो रही है, किन्तु हम कैसे भूल जाये वो दिन जब इन्हीं महानुभाव को इस देश में सांस लेने में असहजता महसूस हो रही थी, देश को असहिष्णु बता रहे थे। शायद मुझे ऐसा लगता है कि अभिनय में कुछ कलाकार अपना सब कुछ भूलकर कलाकृति में ही डूब जाते हैं, जो वर्तमान दशा के स्वर्णिम कदमों को देखना ही भूल जाते हैं, उन्हें वर्तमान तथा बीते पलों में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता। ये तो बस देश को भ्रमित करने का ही कार्य करते रहते हैं।

फिल्म में बहुत-सी अच्छी बातों के पीछे बहुत ही निम्न स्तर की गंदी सोच छिपी हुयी है। फिल्म में बहुत ही प्रमाणिक रूप से बार-बार बताने  का यत्न किया गया है कि शाकाहार से मनुष्य को पोषक तत्व नहीं मिलते, यदि पूर्णपोषक तत्व चाहिए तो मांसाहार का सेवन करना चाहिए। हरयाणा के एक सभ्य परिवार में शाकाहार की परम्परा को तोड़कर मांसाहार की स्थापना की जाती है, और हर उत्साह के समय पर दिखाया जाता है कि मांसाहार के सेवन से ही एक कमजोर बच्ची ने अपने शरीर को सुदृढ़ कर सभी को परास्त कर स्वयं की विजयश्री को प्राप्त किया। वैसे भी हमारे युवा मांसाहार के प्रति अपनी लगन को बढ़ाये हुए थे किन्तु आज इस आदर्शकारिणी फिल्म के कारण बच्चे अपने माता-पिता को मांसाहार के लिए प्रेरित करेंगे और कहेंगे कि यदि हम मांसाहार का सेवन करेंगे तभी  जाकर हम सुदृढ़ता को प्राप्त कर पायेंगे। जो शरीर से दुर्बल हैं, पतले हैं उनका भी निश्चय होगा कि हम भी मांसाहार का सेवन कर अपनी दुर्बलता को समाप्त करें।

किन्तु जो फिल्म के माध्यम से लोगों को भ्रमित करने का कार्य किया गया है वह सर्वथा गलत है। अभी कुछ समय पहले की ही घटना है कि स्वाइन फ्लू समग्र विश्व में महामारी के रूप में आया था, ये रोग मुर्गियों और सूअरों के माध्यम से मनुष्य को संक्रमित करते हैं। पक्षी और जानवरों का मांसाहार इसका प्रमुख कारण है। शाकाहारी जीवन शैली से इन रोगों का सम्पूर्ण निराकरण किया जा सकता है। मछलियों, मास और अण्डों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवहृत विभिन्न किस्म के रसायन मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक हैं। एक परीक्षण से हाल में ही सिध्द हुआ है कि यदि अण्डे को आठ डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक तापमान में बारह घंटे से अधिक समय के लिए रखा जाता है तो अन्दर से अण्डे की सड़न प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत जैसे ग्रीष्म मण्डलीय जलवायु में अण्डे को निरन्तर वातानुकूलित व्यवस्था में रखा जाना सम्भव नहीं हो पाता है। ये वाइरस खाद्य सामग्री को विषैला बना देते हैं।

संसार में मनुष्य से भिन्न दुनिया का अन्य कोई भी प्राणी अपनी शारीरिक संरचना एवं स्वभाव के विपरीत आचरण नहीं करता। जैसे गाय भूख के कारण कभी भी मांसाहार का सेवन नहीं करती, इसका कारण है कि ऐसा उसके स्वभाव के प्रतिकूल है जबकि मनुष्य जैसा विवेकशील प्राणी इस प्रतिकूल स्वभाव को अपना स्वभाव बना लेता है। मांसाहारी खाद्य की तुलना में शाकाहारी खाद्यों में स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। यह व्यक्ति को स्वस्थ, दीर्घायु, निरोग और हृष्टपुष्ट बनाता है। शाकाहारी व्यक्ति हमेशा ठण्डे दिमागवाले, सहनशील, सशक्त, बहादुर, परिश्रमी, शान्तिप्रिय, आनन्दप्रिय और प्रत्युत्पन्नमति होते हैं। वे अधकि समय बिना भोजन के रहने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उनके पास दीर्घ समय तक उपवास करने की क्षमता है। ऐसी फिल्में जो संसार को जीवन में कठिनताओं से लड़ना सिखाती हैं, वो कहीं न कहीं गलत दिशा देने का प्रयास करती है। पाठकगण बुध्दिमान् तो स्वयं होते ही हैं, दिशाभ्रमित न हो जाये, इस निमित्त किंचित् प्रयासमात्र किया गया है। सार्थक पहल आपकी ओर से अपेक्षित है।

इस फिल्म में दूसरी जो गलत दिशा देने की कोशिश की गयी है, वह है – अपने गुरु (फिल्म के अधार पर कोच) के बताये मार्ग को सदा गलत दिखाया गया है। जो गुरुओं पर अपार दुःख का भान करायेगा। गुरु का दर्जा बहुत ही सोच समझ कर दिया जाता है। और गुरु जब अपने परिश्रम से जो सिखाये उसको बिना किसी कारण के ही अस्वीकार कर देना गुरुपरम्परा का अपमान है। यदि फिल्म का उद्देश्य गुरु की निन्दा ही करना है तो समाज में गुरुजन अपने शिष्यों के लिए जो कुछ करते हैं,उसको तुरन्त ही बन्द कर देना चाहिए। यदि गुरु के सिखाने में कोई त्रुटि है तो उसे सहज भाव से समझाया भी जा सकता था, किन्तु फिल्म में इसके आसार ही कुछ और हैं। ऐसी फिल्म युवाओं के दिलो-दिमाग से गुरुजनों के प्रति आदर भाव को समाप्त करने में सहायक होंगी।

इस फिल्म की यदि तीसरी गलती देखी जाये तो हम समझ पायेंगे कि भारत में प्रचार व प्रसारित होने वाली फिल्मों में जब कभी मादकद्रव्यों का सेवन दिखाया जाता है तब एक छोटी-सी पट्टी चलती है, जिसमें लिखा होता है कि ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’, जबकि इस फिल्म में ऐसा एक बार भी नहीं होता। इससे स्पष्ट होता है कि फिल्म में धूम्रपान को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज की पीढ़ी जब इस फिल्म को देखेगी तब कहेगी कि पहले तो धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था किन्तु अब धूम्रपान करने से कोई भी हानि नहीं है। इसीलिए स्वेच्छा से धूम्रपान करो। ऐसी गलत सोच को आप पाठकगण अपनी  सकारात्मक प्रतिक्रिया से ही ध्वस्त करने का यत्न करेंगे।

प्रबुध्दपाठकगणों!

सिनेमाजगत् के माध्यम से देश की दिशा बदलने का यह दयनीय व्यवहार हो रहा है, यह सर्वथा असहनीय है। जनमानस प्रबुध्द है, सोचने-समझने की क्षमता तीव्र है, सही-गलत के निर्णयकर्ता आप स्वयं ही है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा था कि ‘चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करो’। हे युवाओं! फिल्मों को देखकर अपने महापुरुषों के बताये मार्ग से पथप्रष्ट न हो जाना। सावधान रहें, सतर्क रहें, इसी से आपकी तथा देश की आन-बान-शान है।

‘मांसाहार और मनुस्मृति’

ओ३म्

मांसाहार और मनुस्मृति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्राचीन काल में भारत में मांसाहार नहीं होता था। महाभारतकाल तक भारत की व्यवस्था ऋषि मुनियों की सम्मति से वेद निर्दिष्ट नियमों से राजा की नियुक्ति होकर चली जिसमें मांसाहार सर्वथा वर्जित था। महाभारतकाल के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। ऋषि तुल्य ज्ञानी मनुष्य होना समाप्त हो गये। ऋषि जैमिनी पर आकर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उन दिनों अर्थात् मध्यकाल के तथाकथित ज्ञानियों ने शास्त्र ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता, मांसाहार की प्रवृति अथवा किसी वेद-धर्मवेत्ता से चुनौती न मिलने के कारण अज्ञानवश वेदों के आधार पर शास्त्रों में प्रयुक्त गोमेघ, अश्वमेघ, अजामेघ व नरमेध आदि यज्ञों को विकृत कर उनमें पशुओं के मांस की आहुतियां देना आरम्भ कर दिया था। ऐसा होने पर भी हमें लगता है कि यज्ञ से इतर वर्तमान की भांति पशुओं की हत्या नहीं होती थी। जिन पशुओं को यज्ञाहुति हेतु मारा जाता था, ऐसा लगता है कि उस मृतक पशुओं का सारा शरीर तो यज्ञ में प्रयुक्त नहीं हो सकता था, अतः यज्ञशेष के रूप में यज्ञकर्ताओं द्वारा यज्ञ में आहुत उस पशु के मांस का भोजन के रूप व्यवहार किया जाना भी सम्भव है। कालान्तर में इसके अधिक विकृत होने की सम्भावना दीखती है। अतः कुछ याज्ञिकों की अज्ञानता के कारण यज्ञों में पशु हिंसा का दुष्कृत्य हमारे मध्यकालीन तथाकथ्ति विद्वानों ने प्रचलित किया था। इन लोगों ने अपनी अज्ञानता व स्वार्थ के कारण प्राचीन धर्म शास्त्रों की उपेक्षा की। यदि वह मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही देख लेते तो उनको ज्ञात हो सकता था कि न केवल यज्ञ अपतिु अन्यथा भी पशुओं का वध घोर पापपूर्ण कार्य है।

 

भारत से दूर अन्य देशों के लोगों के पास वेद और वैदिक साहित्य जैसे न तो ग्रन्थ थे, न आचार्य व गुरु थे और न ही श्रेष्ठ परम्परायें थी। अतः उन लोगों का मांसाहार करना शास्त्र, गुरु, आचार्य व ज्ञान के अभाव में अनुचित होते हुए भी वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक हुआ। भारत में जब विदेशी आक्रमण हुए तो यह मांसाहार भी आक्रान्ताओं के साथ आया। आक्रान्ताओं का एक कार्य भारत के लोगों का मतान्तरण या धर्मान्तरण करना भी था। अतः भारत के मांस न खाने वाले लोगों को मृत्यु का भय दिखाकर मुट्ठी भर संख्या में आये आक्रान्ताओं ने असंगठित लोगों का धर्मान्तरण करने के साथ उन्हें मांसाहारी भी बनाया। इतिहास में इन घटनाओं के समर्थक अनेक उदाहरण सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। अतः भारत में मांसाहार की प्रवृत्ति में वृद्धि का कारण मांसाहारी विदेशियों का आक्रामक के रूप में भारत आना प्रमुख कारण बना।

 

वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा गया है जिसका तात्पर्य ही यह है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाये। इस दृष्टि से यज्ञ में मांस का विधान करने वाले हमारे मध्यकालीन विद्वानों की बुद्धि पर हमें दया आती है। इन लोगों ने देश व संसार सहित वैदिक धर्म को सबसे अधिक हानि पहुंचाई हैं। मांसाहार के सन्दर्भ में वेदों में पशुओं की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘‘यजमानस्य पशुन् पाहि कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा व हिंसा न करने की बात कही गई है। प्राचीन वैदिक परम्परा में धर्म व आचार विषयक किसी भी प्रकार की शंका होने पर वेद वचनों को ही परम प्रमाण माने जाने की परम्परा भारत में रही है जिसका समर्थन मनुस्मृति से भी होता है। इस लेख में हम मनुस्मृति में मांसाहार विरोधी महाराज मनु जी का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता खादकश्येति घातकः।।               मनुस्मृति 5/51

 

पौराणिक पं. हरगेविन्द शास्त्री, व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न इस मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़ेटुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातकहिसक होते हैं।

 

इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य शिवपूजन सिंह जी लिखते हैं कि अनुमन्ता-जिसकी अनुमति के बिना उस प्राणी का वध नहीं किया जा सकता, वह क्रय-विक्रयी वा खरीदकर बेचने वाला, मारने वाला हन्ता, धन से खरीदने वाला, धन लेकर बेचने वाला और उसमें प्रवृत्ति करने वाला तथा मांस पकाने वाला घातक वा प्राणी हिंसा करने वाले होते हैं। खरीदने (खाने) वाले तथा बेचने वाले दोनों पापभागी होते हैं। यह घातक (हिंसक) दोष शास्त्रोक्त विधि से हिंसा है। शास्त्र के विधि-निषेध उभयपदक होते हैं तथा मांस-भक्षक के लिए अन्यत्र प्रायश्चित कहा गया है।

 

मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः। में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये। अतः मनुस्मृति में राजर्षि मनु बता रहे हैं कि जो मनुष्य मांसाहार करता है वह राक्षस व पिशाच कोटि का मनुष्य है। ब्राह्मण व अन्य मनुष्यों का भोजन तो देवताओं को दी जाने वाली गोघृत, अन्न, ओषधि, नाना प्रकार के फल व शाकाहारी पदार्थों की आहुतियां ही हैं।

 

हम समझते हैं कि मांसाहार का सेवन मनुष्य के आचरण से जुड़ा कार्य है। प्राणियों की हिंसा होने से इसे सदाचार कदापि नहीं कह सकते। बहुत से लोगों कि यह मिथ्या धारणा है कि मांसाहार से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। यह मान्यता असत्य व अप्रमाणिक है। हमारे महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द, हनुमान, भीम, चन्दगीराम व अन्य अनेक शारीरिक बल में संसार में श्रेष्ठतम रहे हैं। यह सभी शाकाहारी गोदुग्ध, गोघृत, अन्न व फल आदि का सेवन ही करते थे। यह भी सर्वविदित है कि मांसाहार से अनेक प्रकार के रोगों की संभावना होती है। मनुष्य के शरीर की आकृति, इसके खाद्य व पाचन यन्त्र भी शाकाहारी प्राणियों के समान ईश्वर ने बनाये है। मांसाहारी पशु केवल मांस ही खाते हैं, उन्हें अन्न अभीष्ट नहीं होता। यदि मनुष्य अन्न का त्याग कर पशुओं की भांति केवल मांसाहार करें तो अनुमान है कि वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेंगे। अन्न खाना मनुष्य के लिए आवश्यक व अपरिहार्य है। महर्षि दयानन्द जी द्वारा गोकरुणानिधि में किया गया यह प्रश्न भी समीचीन व महत्वपूर्ण है कि जब मांसाहार के कारण सभी पशु आदि समाप्त हो जायेंगे तब क्या मांसाहारी मनुष्य मांस की प्रवृत्ति के कारण अपने आस पास के मनुष्यों को मारकर खाया करेंगे? मांसाहार करना अमनुष्योचित कार्य है। इससे मनुष्य के स्वभाव में हिंसा की प्रवृत्ति व क्रोध का प्रवेश होता है। मनुष्यों में ईश्वर ने दया व करूणा का जो गुण दिया है वह भी मांसाहार से बाधित, न्यून व समाप्त होता है। परमात्मा ने मनुष्यों के लिए प्रचुर मात्रा में अन्न व अन्य भोज्य पदार्थ बनायें हैं जो भूख वा क्षुधा को शान्त करने, बल व आरोग्य देने सहित सर्वाधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। यह पदार्थ शीघ्र ही पच जाते हैं। शाकाहारी मनुष्य आयु की दृष्टि से भी अधिक जीते हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह, श्री कृष्ण व अर्जुन आदि योद्धा 120 से 180 वर्ष बीच की आयु के थे। शाकाहारी मनुष्य शाकाहारी पशुओं के समान फुर्तीला होता है। यह मांसाहारियों से अधिक कार्य कर सकता है। यदि सभी शाकाहारी होंगे तो बल-शक्ति-आयु में अधिक होने से देश को अधिक लाभ होगा। चिकित्सा पर व्यय कम होगा और अधिक शारीरिक क्षमता से देश व समाज की उन्नति अधिक होगी। शाकाहार पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी आवश्यक है। यदि मांसाहार जारी रहा तो हो सकता है कि भविष्य में पृथिवी पशु व पक्षियों से रहित हो जाये और तब मनुष्य का जीवन भी शायद् सम्भव नहीं होगा। एक घटना को देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। एक बार हम अपने एक मित्र के परिवार सहित उत्तर पूर्वी प्रदेशों की यात्रा पर गये।एक बंगाली बन्धु की टैक्सी में जब हम शिलांग घूम लिये तो अनायास उस बन्धु ने हमसे पूछा कि क्या आपने यहां कोई पक्षी देखा? हमने कुछ क्षण सोचा और न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा कि यहां के लोग पक्षियों को मार कर खा जाते हैं जिससे यहां सभी पक्षी समाप्त हो गये हैं। कहीं यही स्थिति भविष्य में समस्त भारत व विश्व में न आ जाये, इसके लिए हमें ईश्वर की वेद में की गई वेदाज्ञा का पालन करते हुए मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसी में हमारी और हमारी भावी पीढ़ियों की भलाई है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कःराजेन्द्र जिज्ञासु

पं. गणपति शर्मा जी का मौलिक तर्कः-श्रीयुत् आशीष प्रतापसिंह लखनऊ तथा एक अन्य भाई ने मांसाहार विषयक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पूछा है। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने एक संन्यासी महाराज से भी पूछा। प्रश्न यह था कि वृक्षों में जब जीव है तो फिर अन्न, फल व वनस्पतियों का सेवन क्या जीव हिंसा व पाप नहीं है? संन्यासी जी ने उत्तर में कहा, ऐसा करना पाप नहीं। यह वेद की आज्ञा के अनुसार है। यह उत्तर ठीक नहीं है। इसे पढ़-सुनकर मैं भी हैरान रह गया।
महान् दार्शनिक पं. गणपति शर्मा जी ने झालावाड़ शास्त्रार्थ में इस प्रश्न का ठोस व मौलिक उत्तर दिया। मांसाहार इसलिए पाप है कि इससे प्राणियों को पीड़ा व दुःख होता है। वृक्षों व वनस्पतियों में जीव सुषुप्ति अवस्था में होता है, अतः उन्हें पीड़ा नहीं होती। हमें काँटा चुभ जाये तो सारा शरीर तड़प उठता है। किसी भी अंग पर चोट लगे तो सारा शरीर सिहर उठता है। पौधे से फूल तोड़ो या वृक्ष की दो-चार शाखायें काटो तो शेष फूलों व वृक्ष की शाखाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फूल तोड़ कर देखिये, पौधा मुर्झाता नहीं है। जीव, जन्तु व मनुष्य पीड़ा अनुभव करते हैं।
पं. गणपति शर्मा जी ने यह तर्क भी दिया कि मनुष्य का , पशु व पक्षी का कोई अंग काटो तो फिर नया हाथ, पैर, भुजा नहीं उगता, परन्तु वृक्षों की शाखायें फिर फूट आती हैं। इससे सिद्ध होता है कि वनस्पतियों वृक्षों में जीव तो है, परन्तु इनकी योनि मनुष्य आदि से भिन्न है। इन्हें पीड़ा नहीं होती, अतः इन्हें खाना हिंसा नहीं है। अहिंसा की परिभाषा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी पढ़िये। पं. गणपति शर्मा जी का नाम लेकर यह उत्तर देना चाहिये। पण्डित जी का उत्तर वैज्ञानिक व मौलिक है।

हम शाकाहारी क्यों बनें?

हम शाकाहारी क्यों बनें?

– डॉ. गोपालचन्द्र दाश

गर्मी का महीना है। गर्मी की छुट्टी के कारण सभी स्कूल बन्द हैं। एक लड़का अपने मामाजी के घर घूमने आया। उसके मामा ने उससे कहा कि एक कबूतर को पकड़कर लाओ। उसके मामा मांसाहारी थे। वे कबूतर की हत्या करके उसके मांस को पकाकर खाना चाहते थे। इसी शंका से लड़के ने कबूतर को पकड़ने के लिए पहले मना कर दिया था। उसके मामा ने भरोसा दिलाया कि वे कबूतर की हत्या नहीं करेंगे। आखिर मासूम लड़के ने कबूतर को पकड़ कर मामाजी को सौंप दिया। मामा अपने आश्वासन से मुकर गए और उसी रात कबूतर की हत्या करके उसके मांस से व्यंजन बनाए। यह घटना जानकर उस लड़के को बहुत मानसिक कष्ट हुआ। इसने उसके मन को उद्वेलित किया। रात में खाने के लिए बुलाने पर उसने सीधा मना कर दिया। रात भर बिना भोजन किए सोया। परिवार के सभी लोग लड़के से प्यार करते थे। उसका समर्थन करते हुए परिवार के दूसरे लोगों ने भी रात में भोजन नहीं किया। अगले दिन मामाजी को ज्ञात हुआ कि परिवार के सभी लोग उपवास पर हैं। मामाजी ने अपनी गलती को महसूस किया। लड़के के सामने उन्होंने कसम खायी कि भविष्य में कभी जीवहत्या नहीं करेंगे। वे पूर्ण शाकाहारी बन गए। अपने परिवार के बुजुर्ग लोगों के हृदय में संपूर्ण परिवर्तन लाने के कारण उक्त शाकाहारी बालक स्वाधीन भारत का प्रधानमंत्री बना। भारत के उस महान् सपूत का नाम है लाल बहादुर शास्त्री।

कुछ दिन पहले किसी एक दैनिक समाचार पत्र में रंगीन विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उक्त विज्ञापन की विषयवस्तु पढ़ने से मन दुःख से खिन्न हो गया। अँग्रेजी में लिखित विज्ञापन की विषयवस्तु इस प्रकार थीः- Dear meat lovers, we bring to you best desi khassi kids between the age of 6 to 8 months only rich your plate. Please contact…………विज्ञापन में एक सुन्दर मेमने की तस्वीर बनी थी। इसका आशय यह है कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए यह एक व्यवसायिक चाल थी। अपनी जीभ की लालसा को तृप्त करने के लिए मांसाहार करने के कारण ग्राहकों को समाज में उस तरह का विज्ञापन दृष्टिगत होता है। भुवनेश्वर की सड़क की पगडंडी के अधिकांश स्थान पर विज्ञापन पट्ट पर लिखा हुआ है- ‘‘मिट्टी के बर्तन में पकाया गया मांस और भात (बिरयानी)’’। इस तरह का विज्ञापन मांसाहार को प्रोत्साहित करता है। मानव शरीर के लिए मांसाहार अनुकूल है या नहीं, यह बात जानने से पहले यह जानना चाहिए कि आदमी जीभ के स्वाद के लिए खाता है। मांसाहारी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जीव हत्या नहीं करने के बावजूद वह निश्चित रूप से महापाप में मुख्य भूमिका निभाता है।

बच्चा प्रसव के पश्चात् माँ का दूध पीता है। माँ का दूध उपलब्ध न होने से माँ के घरवाले गाय के दूध की व्यवस्था करते हैं। इसलिए मनुष्य जन्म से शाकाहारी है। आयु के बढ़ने के बाद परिवार और समाज के प्रभाव से व्यक्ति मांसाहारी बन जाता है। समाज में विद्यमान कुशिक्षा उस की जड़ है। शरीर की संरचना की दृष्टि से मानव शरीर शाकाहारी भोजन के लायक है। उदाहरण के तौर पर-

१. मांसाहार करनेवाले प्राणी की लार में अम्ल की मात्रा अधिक होती है।

२. मांसाहारी प्राणी के रक्त की रासायनिक स्थिति (पी.एच.) कम है अर्थात् अम्लयुक्त है। शाकाहारी प्राणी के रक्त का पी.एच. ज्यादा है अर्थात् क्षारयुक्त है।

३. मांसाहारी प्राणी के रक्त में स्थित लिपोप्रोटीन शाकाहारी प्राणी से अलग होता है। शाकाहारी प्राणी का लिपोप्रोटीन मनुष्य जैसा होता है।

४. मांस की पाचन क्रिया में मांसाहारी प्राणी के आमाशय में उत्पन्न हाइड्रोक्लोरिक एसिड की मात्रा मनुष्य की तुलना में दस गुणा होती है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के आमाश्य में उत्पन्न अम्ल (एसिड) की मात्रा कम होने के कारण मांस की पाचन क्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।

५. मांसाहारी प्राणी की आंत्रनली की लम्बाई छोटी और शरीर की लम्बाई के बराबर होती है। आंत्रनलिका छोटी होने के कारण मांस शरीर में विषैला होने से पहले बाहर निकल जाता है, परन्तु मनुष्य और अन्य शाकाहारी प्राणियों की आंत्रनली की लम्बाई शरीर की लम्बाई से चार गुणा अधिक होती है, इसलिए मांसाहार से उत्पन्न विषैला तत्त्व शरीर से सहज ढंग से निकल नहीं सकता है, इसलिए शरीर रोगाक्रान्त हो जाता है। मांसाहार से उत्पन्न प्रमुख रोग हैं-उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदयरोग, गुर्दे का रोग, गठिया, अर्श, एक्जीमा, अलसर, गुदा और स्तन कर्कट आदि।

६. शिकार को सहज ढंग से पकड़ने के लिए मांसाहारी प्राणी की जीभ कंटीली, दाँत पैने और ऊँगलियों में पैने नाखून होते हैं। लेकिन शाकाहारी प्राणी की जीभ चिकनाईयुक्त, चौड़े दाँत और नाखून आयताकार जैसे होते हैं। शाकाहारी प्राणी होंठ के सहारे पानी पीता है, परन्तु मांसाहारी प्राणी जीभ से पानी पीता है।

७. मांसाहारी प्राणी की जीभ ऊपर और नीचे की और गतिशील होती है। इसलिए वे बिना चबाकर भोजन को निगल लेते हैं, इसके विपरीत शाकाहारी प्राणियों की जीभ चारों दिशाओं में गतिशील होती है। इसलिए वे भोजन को चबाकर खाते हैं।

८. मांसाहारी भोजन से शरीर में उत्पन्न अधिक वसा आदि के निर्गत के लिए उनके यकृत और गुर्दे का आकार बड़ा होता है। शाकाहारी प्राणियों के ऐसे अंग-प्रत्यंग छोटे होने की वजह से धमनी में एथेरोक्लेरोसिम जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।

९. शाकाहारी की तुलना में मांसाहारी जीव की घ्राणशक्ति तेज तथा आवाज कठोर और भयानक होती हैं। ऐसे गुण उन्हें शिकार के लिए मदद करते हैं।

१०. मांसाहारी प्राणी की संतान जन्म के बाद एक सप्ताह तक दृष्टिहीन होती हैं। मनुष्य की तरह अन्य शाकाहारी पशु की संतान जन्म के बाद देख सकती हैं। ऐसे सभी विश्लेषण से ज्ञात होता है कि मानव शरीर की संरचना अन्य मांसाहारी प्राणियों से भिन्न होती हैं और शाकाहारी प्राणियों के अनुरूप होती हैं। इसलिए मनुष्य हमेशा एक शाकाहारी प्राणी है।

मनुष्य से भिन्न दुनिया का अन्य कोई भी प्राणी अपनी शारीरिक संरचना एवं स्वभाव के विपरीत आचरण नहीं करता है। उदाहरण के रूप में बाघ भूखा रहने पर भी शाकाहारी नहीं बनता है अथवा गाय भूख के कारण मांसाहार नहीं करती है। कारण यह कि ऐसा उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है, परन्तु मनुष्य जैसे विवेकशील एवं बुद्धिमान् प्राणी में इस तरह के प्रतिकूल स्वभाव पाए जाते हैं। मनुष्य का भोजन केवल पेट भरने तथा स्वाद तक सीमित नहीं है। यह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, चरित्रगत तथा बौद्धिक स्वास्थ्य के विकास में मुख्य भूमिका निभाता है। इसके लिए कहा गया है- ‘‘जैसा अन्न, वैसा मन’’। भोजन में रोग उत्पन्न करनेवाला, स्वास्थ्य को बिगाड़नेवाला और उत्तेजक पदार्थ रहने से वह शरीर के लिए हानिकारक होता है तथा शरीर के लिए विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने में रुकावट पैदा करता है। भोजन ऐसा होना चाहिए जिससे कि शरीर से अनावश्यक तत्त्व शीघ्र बाहर निकलने के साथ-साथ रोगनिरोध शक्ति उत्पन्न हो। पेड़ पौधों से बनाए जाने वाले शाकाहारी भोजन में पर्याप्त रेशा (फाइबर) होने के कारण यह कब्ज को दूर करने के साथ-साथ अनावश्यक पदार्थ जैसेः- अत्यधिक वसा (फैट) और सुगर आदि मल के रूप में निर्गत करवाता हैं। इसी वजह से व्यक्ति को मधुमेह और उच्च रक्तचापआदि रोगों से मुक्ति मिलती है। मांसाहारी खाद्य की तुलना में शाकाहारी खाद्य में स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। यह व्यक्ति को स्वस्थ, दीर्घायु, निरोग और हृष्टपुष्ट बनाता है। शाकाहारी व्यक्ति हमेशा ठंडे दिमागवाले, सहनशील, सशक्त, बहादुर, परिश्रमी, शान्तिप्रिय आनन्दप्रिय और प्रत्युत्पन्नमति होते हैं। वे अधिक समय बिना भोजन के रहने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उनके पास दीर्घ समय तक उपवास करने की क्षमता है। उदाहरण स्वरूप भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने इस वर्ष नवरात्रि पर्व के दौरान अपनी अमेरीका यात्रा के दौरान लगातार पाँच दिनों तक उपवास करके केवल गर्म पानी पी कर धाराप्रवाह भाषण के माध्यम से दिन-रात अनेक सभाओं को बिना अवसाद सम्बोधित किया था। यह घटना विश्ववासियों को आश्चर्यचकित करती थी।

शाकाहारी भोजन न केवल शक्ति प्रदायक होता है, यह आर्थिक दृष्टि से किफायती भी है। शाकाहारी भोजन द्वारा पशुधन सुरक्षित होने के साथ-साथ इसका सही उपयोग होता है। गौ पशुधन से प्राप्त दूध, दूध-सम्बन्धी उत्पाद, गोबर खाद, ईंधन गैस और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। मुर्गी वातावरण की संरक्षा और मछली जल का शोधन करती है। इसके विपरीत यदि शाकाहारी प्राणी प्रतिदिन मांसाहार करता है तो इतनी मात्रा में अम्ल और जहरीला पदार्थ उत्पन्न होंगे तो शारीरिक क्रिया को क्रमशः ठप करा देंगे। उससे व्यक्ति अल्पायु होता है। उदाहरण के तौर पर भौगोलिक परिवेश के अनुरूप मांसाहार से जीवनयापन करने के कारण एस्किमों की औसत आयु सिर्फ ३० वर्ष होती है। कसाईखाने में मासूम जानवर अपनी आत्मरक्षा का प्रयास करते हुए छटपटाता है। भय और आवेग से पशु के शरीर से अत्यधिक मात्रा में आड्रेनलीन उत्पन्न होता है। यह एक उत्तेजक हारमोन है। इससे पशु का मांस विषैला बन जाता है। उक्त मांस को खानेवाला व्यक्ति हमेशा सामान्य उत्तेजक स्थिति में उत्तेजित होता हैं एवं क्रुद्ध बन जाता है। मांसाहार से सम्बद्ध अन्य बुरी आदतें हैं जैसे- मदिरा पान, धूमपान। मांस और मदिरा के चपेट में आकर मनुष्य अज्ञात रूप से बहुत कुकर्म करता है।

विगत दिनों की घटनाओं पर चिंतन करने पर यह पाया गया है कि वाइरसजन्य बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू समग्र विश्व में बारबार महामारी का रूप लेते हैं। ये रोग मुर्गियों और सूअरों के माध्यम से मनुष्य को संक्रमित करते हैं। उपर्युक्त पक्षी और जानवर का मांसाहार इसका प्रमुख कारण है। शाकाहारी जीवन शैली से इन रोगों का संपूर्ण निराकरण किया जा सकता है। मछलियों, मांस और अण्डों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवहृत विभिन्न किस्म के रसायन मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक हैं। परीक्षा से इस बात की पुष्टि की गई हैकि यदि अण्ड़े को आठ डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक तापमान में बारह घंटे से अधिक समय के लिए रखा जाता है तो अन्दर से अण्डे की सड़न प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत जैसे ग्रीष्म मंडलीय जलवायु में अण्डे को निरन्तर वातानुकूलित व्यवस्था में रखा जाना संभव नहीं हो पाता है। ये वाइरस, टाइफाइड और खाद्य सामग्री को विषैला बना देते हैं। लिस्टेरिया वाइरस गर्भवती महिलाओं में गर्भपात की समस्या तथा गर्भस्थ शिशु में रोग उत्पन्न करता है।

मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। अहिंसा मानव का परम धर्म है। सभी धर्मों में जीवहत्या का विरोध किया गया है। जीवहत्या के बिना मांसाहार असंभव है। दया और विनम्रता गुण मनुष्य के भूषण होते हैं। निर्दयता मनुष्य को जीवहत्या के लिए प्रेरित करती है। यह मनुष्य का गुण नहीं है, अवगुण है। महात्मा बुद्ध, वर्धमान महावीर, महर्षि दयानन्द, संत कबीर और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषगण जीवहत्या का विरोध करते थे और कहते थे कि मांस की खरीद करने वाला आदमी मांसाहार करने वाले आदमी की तरह दोषी हैं।

वर्तमान समाज में परिवर्तन की लहर आई है। पाश्चात्य देश के लोग हमारी संस्कृति से प्रभावित होकर धीरे-धीरे शाकाहारी बन रहे हैं, परन्तु हम लोग विपरीत आचरण कर रहे हैं। जन जागरण के लिए वर्तमान केबिनेट मंत्री श्रीमती मेनका गाँधी समाचार पत्रों और दूरदर्शन के माध्यम से मांसाहार के कुपरिणाम और शाकाहार के लाभ के बारे में निरन्तर अपने विचार व्यक्त करती आ रही हैं। कनाडा के अनुसंधानकर्त्ताओं की एक टीम ने ५ सालों के परीक्षण के बाद ‘अम्बलीडमा अमेरिकनस’ नाम से एक कीड़े का आविष्कार किया है। ठंडे परिवेश में अपने वंश का विस्तार करने वाला कीड़ा यदि आदमी को काट देता है तो उसके शरीर में एक अस्वाभाविक परिवर्तन होता है।

मनुष्य की भावना उसके कर्म को प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति में अहिंसा, दया, क्षमा और उपकार करने की भावना है, वह अन्य किसी प्राणी को दर्द देनेवाला निर्दय कर्म नहीं करेगा। प्राणी के कष्ट को हृदय में महसूस करने वाला व्यक्ति मांसाहार करेगा, इसकी कल्पना कभी भी नहीं की जा सकती है, तो आइए, हम सब शाकाहारी बनें।    – अपर स्वास्थ्य निदेशक, पूर्व तट रेल्वे, भुवनेश्वर।

मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

यह युग ज्ञान और जनसँख्या  के विस्फोट का युग है। कोई भी

समस्या हो जनसँख्या की दुहाई देकर राजनेता टालमटोल कर देते

हैं।

1967 ई0 में गो-रक्षा के लिए सत्याग्रह चला। यह एक कटु

सत्य है कि इस सत्याग्रह को कुछ कुर्सी-भक्तों ने अपने राजनैतिक

स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया। उन दिनों हमारे कालेज के एक

प्राध्यापक ने अपने एक सहकारी प्राध्यापक से कहा कि मनुष्यों को

तो खाने को नहीं मिलता, पशुओं का क्या  करें?

1868 में, मैं केरल की प्रचार-यात्रा पर गया तो महाराष्ट्र व

मैसूर से भी होता गया। गुंजोटी औराद में मुझे ज़ी कहा गया कि

इधर गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक भी यही प्रचार करते हैं।

मुझे इस प्रश्न का उत्तर  देने को कहा गया। जो उत्तर  मैंने महाराष्ट्र में

दिया। वही अपने प्राध्यापक बन्धु को दिया था।

मनुष्यों की जनसंज़्या में वृद्धि हो रही है यह एक सत्य है,

जिसे हम मानते हैं। मनुष्यों के लिए कुछ पैदा करोगे तो ईश्वर मूक

पशुओं के लिए तो उससे भी पहले पैदा करता है। गेहूँ पैदा करो

अथवा मक्की अथवा चावल, आप गन्ना की कृषि करें या चने की या

बाजरा, जवारी की, पृथिवी से जब बीज पैदा होगा तो पौधे का वह

भाग जो पहले उगेगा वही पशुओं ने खाना है। मनुष्य के लिए

दाना तो बहुत समय के पश्चात् पककर तैयार होता है।

वैसे भी स्मरण रखो कि मांस एक उज़ेजक भोजन है। मांस

खानेवाले अधिक अन्न खाते हैं। अन्न की समस्या इन्हीं की उत्पन्न

की हुई है। घी, दूध, दही आदि का सेवन करनेवाले रोटी बहुत कम

खाते हैं। मज़्खन निकली छाछ का प्रयोग करनेवाला भी अन्न

थोड़ा खाता है। इस वैज्ञानिक तथ्य से सब सुपरिचित हैं, अतः

मनुष्यों के खाने की समस्या की आड़ में पशु की हत्या के कुकृत्य

का पक्ष लेना दुराग्रह ही तो है।

 

 

मानवीय भोजन तथा उसका परिचरण – आचार्य शिवकुमार

प्रस्तुत लेख का विषय है, मनुष्य का भोजन तथा उसका प्रकार। भोजन शद की सिद्धि केलिए पाणिनी ने एक धातु सूत्र लिखा है- ‘‘भुज पालन अयवहारयो’’ इस धातु के दो अर्थ हैं- एक पालन करना, दूसरा भोजन करना। इसी धातु से अन्योन्य अनेक शद बनते हैं, जैसे-भोग, भोज्य, भोक्ता, भोक्तव्य आदि (भोग तथा भोक्ता का) भोज्य और भोक्ता का निकट (नित्य) सबन्ध है। प्राकृतिक जड़ पदार्थ परार्थ हैं, अर्थात् चेतन आत्मा के लिए है। आत्मा जब स्व कर्मानुसार मानव व अन्य प्राणी के शरीर में आता है तो कर्मफल के तद्रूप शरीर की रचना होती है। शरीर पंच भौतिक होने से तत् तत्त्व की आवश्यकता होती है। वह जरूरत भूख के रूप में अभिव्यक्त होती है। उसकी कमी व आवश्यकता की पूर्ति विभिन्न भक्ष्यों से की जाती है। यहीं से भोक्ता भूख तथा भोजन के इस त्रिक का सूत्रपात होता है। ये स्वखाद्यत्रिगुणात्मक होते हैं, क्योंकि जो गुण कारण में होता है, वह कार्य में भी देखा जाता है। ‘‘कारणगुणपूर्वकः कार्य गुणोदृष्टः’’ (वै. अ. 2 आ. 1 सू. 24) अर्थात् ‘‘जैसे कारण में गुण होते हैं वैसे ही कार्य में होते है’’। इन सत्त्वादि के तीनों गुणों के पृथक-पृथक गुण-धर्म है। मूल प्रकृति के पंचभूत विकार हैं। इन्हीं से समग्र स्थूल शरीरों की रचना होती है।       ऊपर से लेकर शरीर तक का सबन्ध नितान्त रूप से कारण-कार्य के अनुरूप चलता रहता है। इसी प्रकार सभी प्राणियों के इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों से शरीरों का निर्माण होता है तथा स्व-स्व गुण-धर्म निमित्त शरीर में रहते हैं। सभी प्राणियों की नेक प्रकृति स्वभाव तथा जीने का कारण बड़ा विलक्षण प्रकार रहता है। अपनी-अपनी स्वाभाविक प्रकृति व शरीर आकृति के आधार पर उनका अपना-अपना भोजन भी निश्चित है। क्षुद्रजीव से लेकर विशालकाय पर्यन्त साी प्राणियों में एक निर्धारित जीवन-शैली है। इसमें तनिक भी विपर्यय नहीं होता है। भोजन भक्षी प्राणियों को स्थूल रूप से दोाागों में विभक्त कर सकते हैं- शाकाहारी और मांसाहारी। अब देखना यह कि मनुष्य कौन से आहार पर विश्वास रखता है? सभी प्राणी अपने-अपने भोजन पर पूर्ण विश्वस्त हैं। किन्तु मानव अपने भोजन पर अभी तक निर्णय नहीं कर पाया है कि मनुष्य का भोजन कौन-सा है? पशु-पक्षी, जन्तु, जानवर बुद्धिविहीन होने पर भी अपने खाद्य पर अटल है, किन्तु आश्चर्य है कि सभी प्राणियों में बुद्धिमान, मनुष्य अपने खाद्यों में चंचल व दुर्बल है। अतः कहा है  ‘‘लोल्यं दुःखस्य कारणम्’’- जीभ का लालच सभी दुःखों का कारण है। पर प्राणी के शरीर को विनष्ट करके अपने जीभ के स्वाद को पूरा करना कहाँ तक सही है? मांस भक्षण से मनुष्य का स्वभाव हिंसक व तामसिक हो जाता है। आयुर्वेद के चरकादि ग्रन्थों में जो मांस भक्षण का विधान किया है, वह किसी परिस्थिति विशेष के लिए हो सकता है अथवा किसी रोग विशेष के लिए हो सकता है। सर्व साधारण एवं निर्विकल्प नियम नहीं है। मांस के अन्य अनेकों विकल्प हैं, उसके स्थान पर अनेक वन्य औषधियों से रोग का निवारण किया जा सकता है। अतएव मांस मनुष्य का भोजन नहीं, क्योंकि यह मानवीय प्रकृति के सानुकूल नहीं है। सचमुच मनुष्य का भोजन तो फल, दूध, अन्नादि सर्वोत्तम पदार्थ हैं। फलाहार जो प्राकृतिक रूप से स्वयं वृक्ष पर परिपक्व होता है। जिसे किसी भी प्रकार के ‘‘केमिकल’’ से नहीं पकाया हो, वहीं सर्वोत्तम है। दूसरा- उत्तम गवादि पशुओं का दूध, जो किसी भी मिलावट रहित होना चाहिये। तृतीय है- अन्नाहार, जो धरती के र्गा से उत्पन्न होकर सभी का पालन करता है। किन्तु अत्याधुनिक स्वादों से अनाज को पूर्ण दूषित करके खाना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। ध्यातव्य है कि आहार की शुद्धि होने पर ही सत्त्व बुद्धितत्त्व की शुद्धि होती है और सत्त्व शुद्ध होने पर ही निश्चल स्मृति होती है। हमारे शरीर में पंचकोष होते हैं। अन्न का सबन्ध शरीर के पाँच कोषों से है। इन पंच कोषों में सबसे पहला अन्नमय कोष है। अन्नमय कोष की शुद्धि होने पर अन्य कोषों की उत्तरोत्तर शुद्धि व परिमार्जन होता जाता है। यह सर्वविदित है कि रोगोत्पत्ति प्रायः अनियमित आहार-विहार के कारण होती है। स्वास्थ्य के मूल रूप उपस्तभ तीन हैं- आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य। ये आयु के प्रमुख बिन्दु हैं और परमाचरणीय हैं क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आरोग्य ही मूल साधन है, अतः देश, काल, अवस्था, गुण, परिपाक, हेतु, लक्षण, स्वभाव आदि का परिज्ञान करके ही सत्त्व, बल, आरोग्यदायक ओषध सम भोजन की योजना करें। ध्यान रहे कि भोजन अथवा भोज्य पदार्थ भोग न बन जाय, जिससे रोग के वशीभूत होकर दुःख भोगना पड़े, क्योंकि रोग सबसे भयंकर दुःख होता है। यहाँ वैदिक सूक्ति है- तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। भोज्य  पदार्थों का भोग भी करना है, किन्तु त्यागपूर्वक करना है। ये सभी विधि विधान शरीर के परिपेक्ष में किये गये हैं। शरीरस्थ आत्मा के विषय में कोई विचार नहीं किया गया है, अतः समूचे क्रम में आत्मा ही सर्व उपादेय है। यह सब कुछ आत्मा के लिए है, शरीरेन्द्रियों के द्वारा भौतिक पदार्थों से जो सबन्ध होता है, वह अन्ततः आत्मा तक पहुँचाता है, क्योंकि आत्मा ही कर्त्ता और भोक्ता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है और पवित्र मन से आत्मा की पवित्रता बढ़ती है, अतः आत्मिक सुख परमेश्वर की भक्ति अर्थात् यथोचित् ईश्वर की प्रार्थना करने से प्राप्त होती है। ईश्वर प्रदत्त पदार्थों के उपयोग करने से पहले उसका धन्यवाद करना एक परम कर्त्तव्य है। इसके बिना मनुष्य कृतघ्न एवं दण्डनीय है। परमेश्वर के धन्यवाद के रूप में एक वेद मन्त्र का पाठ किया जाता है-

3म् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।

प्र प्र दातारं तारिषऽऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।।

हे अन्न के स्वामी प्रभो! हमारे लिए बल, बुद्धि, तेज, ओज प्रदान करने वाले रोग रहित अन्न प्रदान करो, हे स्वामिन्! हमें आत्मिक शक्तिदायक अन्न दो, जिससे जीवन आरोग्यवान् होकर सुखपूर्वक जी सकें। इस वेद मन्त्र का उच्चारण भोजन से पूर्व करना चाहिये, क्योंकि यह ईश्वर की आज्ञा है। इससे भिन्न मन्त्रों का उच्चारण भोजन से पहले करना अप्रासंगिक है। जैसा मनुष्य समुदाय में एक प्रचलन है-

3म् सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै।।

-ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमोऽनुवाकः

अर्थ- हे परमात्मन्! एक साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ-साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ ही बल को बढ़ावे तेजयुक्त प्रभावजनक हम दोनों का पढ़ना, स्वाध्याय, एक साथ ही हो। हम द्वेष न करें, कभी भी एक-दूसरे का अहित न सोचें।

यहाँ विचारणीय यह कि इस औपनिषदिक मन्त्र का उच्चारण भोजन काल में किया जाता है, क्या यह उचित है? इसी मन्त्र की एक क्रिया पद पर विचार करने से अच्छी प्रकार समाधान हो जाता है। इस परिप्रेक्ष में पाणिनी मुनि का एक सूत्र है- ‘‘भजोऽनवने’’ (पाणिनि अष्टाध्यायी तृतीय अ. सू. सं. 66) अर्थ- भुजधातोरनवनेऽर्थे वर्तमानादात्मने पदं भवति। भुनक्तु अर्थात् भुज धातु खाने के अर्थ में हो तो आत्मनेपद होती है। इस मन्त्र में जो क्रियापद है वह परस्मैपद है, अतः भुनक्तु का अर्थ होगा- रक्षा करना, न कि भोजन करना ‘‘भुक्ते’’ का अर्थ भोजन करना होता है। वैदिक परपरा अनुगत भोजन से पूर्व उच्चारणीय मन्त्र तो (अन्नपते….) वही मन्त्र प्रासांगिक और सार्थक है। अन्य मन्त्र अथवा कोई श्लोक आदि कदापि संगत नहीं हो सकता। इसी प्रकार से कुछ लोग गीता के एक श्लोक का भी उच्चारण करते हैंः-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्।

ब्रह्मैवतेन गतव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।।

– गीता-4-24

अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूप कर्त्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है। अतएव गीता के इस श्लोक को प्रसंग से रहित ही बोला जाता है। इस श्लोक में ऐसा कोई भी शद नहीं है, जो भोजन से सबन्धित किसी बात को प्रकट करता हो, परन्तु न जाने लोग इस श्लोक को भोजन से पूर्व क्यों उच्चारण करते हैं? सचमुच यह विचारणीय बिन्दु है। सभी सज्जन मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि असत्य को छोड़कर सत्य का ग्रहण करें। यही धर्म तथा यही सत्कर्म है।

– म.क. आर्ष गुरुकुल, (वैदिक आश्रम), कोलायत, जन. बीकानेर, राज.

चलभाष– 09166323384

भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन एवं गोरक्षा पर महर्षि दयानन्द के वेदसम्मत, देशहितकारी एवं मनुष्योचित विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी। रोग के अनेक  कारणों में से मुख्य कारण भोजन भी होता है। रोगी व्यक्ति डाक्टर के पास पहुंचता है तो कुशल चिकित्सक जहां रोगी को रोग निवारण करने वाली ओषधियों के सेवन के बारे में बताता है वहीं वह उसे पथ्य अर्थात् भक्ष्य व अभक्ष्य अर्थात् खाने व न खाने योग्य भोजन के बारे में भी बताता है जिससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। महर्षि दयानन्द वेद एवं वैदिक साहित्य सहित वैद्यक व चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद के भी विद्वान थे। उन्होंने धर्माधर्म व वैद्यक शास्त्रोक्त दृष्टि से भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों पर अपने विचार सत्यार्थ प्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक एवं अज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक हैं। अतः उन्हें सबके लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार का होता है। एक धर्मशास्त्रोक्त तथा दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में- अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च।। मनु.।। इसका अर्थ है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को मलीन विष्ठा मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक फल मूल आदि न खाना। इसका तात्पर्य है कि शाक, फल व अन्न आदि पदार्थ शुद्ध व पवित्र भूमि में ही उत्पन्न होने चाहिये तभी वह भक्ष्य होते हैं। मलीन विष्ठा मूत्रादि से दूषित भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ भक्ष्य श्रेणी में नहीं आते। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं-वर्जयेन्मधुमांसं च।। मनु.।। अर्थात् जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि। बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।। वचन को उद्धृत कर वह कहते हैं कि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं, उन का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है, उनके हाथ का (पकाया व बना) न खावें।

 

वह आगे लिखते हैं कि जिस में उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से गाय की एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ मनुष्यों को सुख पहुंचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दे। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे उस का मध्यभाग ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने दूध देती है, उस का भी मध्य भाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म भर के दूध से 24960 (चैबीस सहस्र नौ सौ साठ) मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। उसके छः बछियां छः बछड़े होते हैं उन में से दो मर जाये तो भी दश रहें। उनमें से पांच बछडि़यों के जन्म भर के दूध को मिला कर 124800 (एक लाख चैबीस सहस्र आठ सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल वे जन्म भर में 5000 (पांच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला कर 374800 (तीन लाख चैहत्तर हजार आठ सौ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी से 475600 (चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ) मनुष्य एक बार में पालित होते हैं और पीढ़ी परपीढ़ी बढ़़ा कर लेखा करें तो असंख्यात मनुष्यों का पालन होता है। इस से भिन्न बैलगांड़ी सवारी भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं तथा गाय दूध से अधिक उपकारक होती है परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंस भी है परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा।

 

बकरी के दूध से 25920 (पच्चीस सहस्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं । इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।

 

देखो ! जब आर्यो (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि नष्टे मूले नैव फलं पुष्पम्। जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों?

 

महर्षि दयानन्द एक काल्पनिक प्रश्न कि जो सभी अंहिसक हो जाये तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरूषार्थ ही व्यर्थ जाय? का उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें। (प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें? (उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है।

 

जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल व कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा व धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम-वृद्धि और आयु-वृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।

 

गोकरुणानिधि पुस्तक में पशु हिंसक मनुष्य का काल्पनिक पक्ष प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि देखो ! जो शाकाहारी पशु और मनुष्य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते वह निर्बल होते हैं, इसलिए मांस खाना चाहिये। इसका प्रतिवाद करते हुए महर्षि दयानन्द पशु रक्षक की ओर से कहते हैं कि क्यों ऐसी अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते। देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है और जब जंगली सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणि समुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली, बरछी तथा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उस से डर के अलग सटक जाता है और वह अरणा भैंसा सिंह से नहीं डरता।

 

जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ नहीं मिलता, वहां आपत्काल अथवा रोगनिवृति के लिये क्या मांस खाने में दोष होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यह कहना व्यर्थ है क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं, वहां पृथिवी अवश्य होती है। जहां पृथिवी है वहां खेती वा फल-फूल आदि होते हैं और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते। और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्ट जल और फल-आहार आदि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है। आपत्काल में भी मनुष्य अन्य उपायों से अपना निर्वाह कर सकते हैं जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं। बिना मांस के रोगों का निवारण भी ओषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर लिखा है कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लेाक में कीर्ति और मर कर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। यहां बताया गया है कि वेद और वेदानुकूल मनुस्मृति के वचनों का पालन करने पर इस लोक में उन्नति होती है और मर कर भी जीवात्मा को सर्वोत्तम सुखों की प्राप्त होती है। हमारे मांसाहारी भाई कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है वा नहीं? यदि रहता है तो उसको सुख व दुःख क्यों, कैसे व किस प्रकार से प्राप्त होते हैं व उनका आधार क्या होता है। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहलाता है। इसलिए वेदादि विद्या को पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी को मधुर और कोमल बोलें। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं।

 

महर्षि गोकरुणानिधि पुस्तक में उपदेश करते हुए कहते हैं कि ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख-सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये। और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उन के स्वामी तथा खेती आदि कर्म करने वाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट होता जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उन की रक्षा यथावत् करे न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे। इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ आगे आंखे खोल कर सब के हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये। हां हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलााई और बुराई के कामों को जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सब की रक्षा और उन्नति करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिस से हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़, सर्वोपकारक कर्मों को कर के सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन कर उसके अनुसार आचरण करना। इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर ! जो इन (गाय आदि पशुओं) को कोई न बचावे तो आप इन की रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि वेद और महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान के रूप में मानते हैं। वेद में किसी मत विशेष के मनुष्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह व पक्षपात करने का विधान नहीं है जैसा कि अन्य मतों में देखा जाता है कि सब अपने अपने समुदाय के प्रति ही उन्नति आदि के इच्छुक होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीय आर्य-हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि के हित व लाभ के लिए ही वैदिक धर्म का प्रचार किया अपितु संसार के अन्य मतों के अनुयायियों के प्रति भी अपनी शुभेच्छा का परिचय दिया। वह संसार के सभी लोगों का एक वैदिक सत्य धर्म, एक संस्कृति, एक मत, एक भाषा, एक सुख-दुख, समानता व निष्पक्षता के पक्षधर थे। उनकी यह विशिष्टता ही वैदिक विचारधारा के कारण थी। इसी विचारधारा को अपनाकर ही संसार में सभी विवादों का हल, शान्ति व सुख का वातावरण तैयार हो सकता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

गोरक्षा   के   लिये   क्या   करना   चाहिये?

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय, भारतरत्न।

यदि हम गौओं की रक्षा करेंगे तो गौएं भी हमारी रक्षा करेंगी। गांव की आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक घर में तथा घरों के प्रत्येक समूह में एक गोशाला होनी चाहिये। दूध गरीबअमीर सबको मिलना चाहिये। गृहस्थों को पर्याप्त गोचरभूमि मिलनी चाहिये। गौओं को बिक्री के लिये मेलों में भेजना बिलकुद बंद कर देना चाहिये। क्योंकि इससे कसाइयों को गायें खरीदने में सुविधा होती है। किसानों की स्थिति के सुधार के लिये दिये जाने वाले इन सुझावों तथा अन्य ऐसे सुझावों को कार्यरूप में परिणत करने के लिये ग्रामपंचायतों का निर्माण होना चाहिये।

फोनः09412985121

 

यज्ञ में पशु-वध वैदिक काल में नहीं था

महाभारत काल में भी इसकी पुष्टि मिलती है – क्योंकि महाभारत में वृतांत आता है –

“यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”

ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है – केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।

तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।

तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।

अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।

सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम्।।

इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणी दंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वी ब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है।

इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद 11.7.7 में लिखा है –

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।

राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकि प्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसका
एकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है”

जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’ हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः।

अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी, उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसका जीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?

उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित है की न तो इतिहास में यज्ञो में पशु बलि का समर्थन मिलता है – ना ही वेद में – ब्रह्माण्ड ग्रंथो में भी ऐसा कुछ पाया नहीं जाता –
लेकिन फिर भी कुछ मूढ़ याज्ञिक (पौराणिक) लोग “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का ढोल पीटते हुए यज्ञ में पशुवध को अहिंसा बताते हुए स्वर्ग का मार्ग तक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं –

ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है, अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकि देखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।।
योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।
(५.४४-४५)

अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता।

दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है।
वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की – गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है –

मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है – न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत काल में – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –

अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये –

सभी महानुभावो से विनम्र निवेदन है कृपया सत्य को समझे – और माने –

वेदो की और लौटिए –

सत्य और न्याय की और लौटिए।

नमस्ते

नोट : ये मनुस्मृति का श्लोक – श्री राम ने – बाली के वध के समय – बाली को सुनाया भी था – ताकि बाली को पता हो की उसने जो वेदविरुद्ध कृत्य किया था – उसका दंड उसे वेद सम्मत और न्यायकारी प्रक्रिया के अधीन ही दिया जा रहा है।

मनुष्य का सैद्धांतिक और नीतिगत भोजन शाकाहार है, मांसाहार नहीं।

भोजन की बात होती है – तो सैद्धांतिक तौर पर – भोजन वो होना चाहिए – जिससे न तो किसी का दोष लगा हो – ना पाप करके चोरी करके लाये हो – न ही हत्या अथवा हिंसा करके –

हिंसा कहते हैं – जो वैर भाव से किया गया कृत्य हो।

लेकिन यदि हम भोजन के तौर पर देखे की क्या खाया जाये – तो एक निर्धारण होता है – एक नियम है – उसकी और ध्यान देना आवश्यक है – क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य बनाया तो उसकी भोजन सामग्री भी अवश्य बनाई होगी और वो ऐसी होनी चाहिए जो सुगम हो सर्वत्र हो आकर्षित करने वाली हो – जो हमारे खाने योग्य हो –

तो ऐसी क्या चीज़ ईश्वर ने बनाई ?

पशु ? पक्षी ? बकरा ? मुर्गा ? बैल ? गाय ? सूअर ?

जी नहीं – क्योंकि न तो इनको देखकर खाने का आकर्षण होता – और न ही इन पशुओ को आपसे वैसा भय रहता जैसे की चीता शेर आदि हिंसक जानवरो से – यदि ये पशु मनुष्य के लिए बने गए होते तो आपके दांत – नाख़ून – पंजे – पेट की आंत – भोजन नली – आदि सब हिंसक जानवरो – पशुओ जैसी होती – जबकि ऐसा नहीं है –

पर यदि आप ध्यान से देखो – तो आपको सुन्दर प्राकृतिक वन – पेड़ पौधे – फल फूल – सुन्दर सुन्दर खुशबू – फूलो का प्राकर्तिक सौंदर्य आपके मन को भाता है – हम अपने घर आँगन को ऐसी ही सजाते हैं –

यदि हमें प्राकर्तिक तौर पर माँसाहारी बनाया होता तो हमें पेड़ पौधों फूलो की अपेक्षा हड्डी मांस खून आदि से विशेष लगाव होता – और अपने घर आदि भी ऐसे ही हड्डी मांस खून आदि से सजाते – जबकि ऐसा नहीं होता।

विशेष बात है की – जब हम पेड़ से आम तोड़ते या धान गेहू की फसल काटते तो कोई भागता नहीं है – क्योंकि वो भागने के लिए बनाये ही नहीं – और इसमें हिंसा भी नहीं हुई क्योंकि वैर भाव नहीं था वो जीवो के भोजन हेतु ही बनाये गए हैं – ये सिद्ध होता है।

दुनिया में सभी शाकाहारी है – क्योंकि बिना शाक – गेहू ज्वर बाजरा सरसो – मूली टमाटर = कुछ नहीं बना सकते – न खा ही सकते – इसलिए दुनिया का कोई मनुष्य अपने को शाकाहारी नहीं हु ऐसा सैद्धांतिक तौर पर नहीं कह सकता –

पर कुछ लोग वो खाते हैं जो सभी मनुष्य नहीं खाते –
और जो सब मनुष्य खाते हैं उसे ही शाकाहार कहा जाता है

इसलिए शाकाहारी तो सभी हैं – मांसभक्षी भी शाकाहार ही खाता है – पर क्योंकि सभी मनुष्य मांस नहीं खाते इसलिए वो अपने को मांसाहारी भी कहता है – और बिना शाकाहार उसका मांस व्यर्थ है – इसलिए क्यों नहीं शाकाहार अपनाया जाये ?

शेष फिर कभी………

न जहर, न मांसाहार, दूध है अमृत

दूध – मधुर, स्निग्ध, रुचिकर, स्वादिष्ट और वात-पित्त नाशक होता है। यह वीर्य,

बुद्धि और कफ वर्धक होता है। शीतलता, ओज, स्फूर्ति और स्वास्थ्य प्रदायक होता है।

स्त्री और गाय का दूध गुण-धर्म की दृष्टि से समान होता है। उसमें विटामिन ए और
खनिज तत्व होते हैं, जो रोगों से लड़ने की ताकत (प्रतिरोधक क्षमता) प्रदान करते हैं
और आंखों का तेज बढ़ाते हैं। दूध एक पूर्ण आहार है। शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के
लिए जितने तत्वों की जरूरत होती है, वे सभी उसमें पाए जाते हैं।

दूध रक्त नहीं है। इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण तो यह है कि दूध में जो केसीन
नामक प्रोटीन मौजूद रहता है, वह खून और मांस में नहीं पाया जाता। जो रक्त कणिकाएं
(डब्ल्यूबीसी, आरबीसी) और प्लेटलेट्स खून में पाए जाते हैं, वे दूध में नहीं होते। यह बात
साइंसदानों ने दूध का बेंजोइक टेस्ट करके बताई है। यह परीक्षण किसी भी पैथोलॉजी लैब
में किसी भी डॉक्टर से कराकर देखा जा सकता है। दूध एनिमल प्रॉडक्ट होने पर भी रक्त-
मांस से बिल्कुल अलग एक शुद्ध रस है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि दूध में वही प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स और
शर्करा आदि तत्व पाए जाते हैं, जो खून में पाए जाते हैं, इसलिए दोनों एक हैं। लेकिन अगर
यह तर्क सही है, तो वे सभी तत्व हरे या भिगोए हुए सोया, गेहूं, चना आदि अनाज में
भी पाए जाते हैं, लिहाजा उन्हें भी मांसाहार कहना पड़ेगा, जो कि सही नहीं होगा।

यह सही है कि जेनेटिक ब्लू प्रिंट के मुताबिक अपनी-अपनी प्रजाति की मां का दूध सबसे
अच्छा होता है इसलिए गाय का बछड़ा गाय का दूध, बकरी का मेमना बकरी का दूध,
बिल्ली का बच्चा बिल्ली का दूध और शेरनी का बच्चा शेरनी का दूध पीता है। इस प्रकार
सभी स्तनधारी प्राणियों की मांएं अपने बच्चों के पोषण और विकास के लिए दूध देती हैं।

लेकिन यह भी सदियों से आजमाई हुई बात है कि जिन प्राणियों की मां नहीं होती या दूध
नहीं दे पाती, गाय उनकी मां बन जाती है। गाय का दूध सभी प्राणियों के अनुकूल पड़ता है
और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। इसके उलट अन्य प्राणियों का दूध
प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सभी के काम नहीं आता। लेकिन याद रखें कि दूध
मां का हो या गाय का, उसका सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि उससे
अधिक ग्रहण किया जाएगा, तो हानि पहुंचाएगा। इसलिए ‘हितमित भुख’ यानी थोड़ा और
हितकारी भोजन करने को कहा गया है। अति तो हर चीज की बुरी होती है। यह कह कर
भी दूध को खारिज नहीं किया जा सकता कि वह छह से आठ घंटे में पचता है। बहुत
सी ऐसी शक्तिवर्धक चीजें (बादाम, काजू, मूंगफली आदि) हैं, जिन्हें पचने में इससे
ज्यादा समय लगता है।

शिशु अवस्था में लेक्टॉस एंजाइम का पर्याप्त मात्रा में स्त्राव होता है। वे ही एंजाइम दूध
को पचाते हैं, इसलिए बच्चों का वह पूर्ण आहार होता है, लेकिन जैसे-जैसे उम्र
बढ़ती जाती है, लेक्टॉस एंजाइम का स्त्राव घटता जाता है। फिर भी लगातार दूध पीने
वालों को यह पचता रहता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में क्लिनिकल
इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. ट्यूबर का कहना है कि जो वयस्क आदतन दूध और उससे
बने उत्पादों का सेवन करते हैं, उनके लेक्टॉस एंजाइम सक्रिय बने रहते हैं और दूध
पचता रहता है। लेकिन जो बचपन के बाद दूध का सेवन बंद कर देते हैं, उनमें इस एंजाइम
का संश्लेषण बंद हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को दूध पीने के बाद डायरिया और पेट दर्द
की शिकायत हो सकती है। लेकिन दूध नहीं पचा सकने वाला व्यक्ति अगर (चावल,
रोटी आदि के साथ) थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते हुए क्रम से दूध का सेवन करता है, तो एंजाइम
की मात्रा सुधर जाती है और दूध पचने लगता है।

दूध इतना अधिक होता है कि उसे दुहा जाना जरूरी है। हानाह शोध संस्थान के डॉक्टर
वाइल्ड का कहना है कि अगर दूध दुहा न जाए, तो स्तन ग्रंथियों पर बुरा असर पड़ता है।
इससे स्तन कोशिकाएं मरने लगती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बछड़े को पेट भर
दूध मिले। इंजेक्शन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए।

दूध का उपयोग अनादिकाल से हो रहा है। हमारे महापुरुष इसी अमृत को पीकर बड़े हुए।
इसलिए दूध के आलोचकों को न सिर्फ तथ्यों से, बल्कि परंपरा से भी सबक लेना चाहिए।